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मंगलवार, 1 सितंबर 2015

दिल्ली में होम टू होम डिलेवर होंगे आजीविका प्रोडक्ट

- शुरूआत गुड़गांव और एनसीआर से होगी
- शहडोल के 50 युवाओं को मिलेंगी जिम्मेदारी
डॉ. अनिल सिरवैयां, भोपाल
9424455625, sirvaiyya@gmail.com
 मप्र में राज्य आजीविका मिशन के तहत किसानों की 26 कंपनियों और स्व-सहायता समूहों के प्रोडक्ट अब दिल्ली में बिकेंगे। इन प्रोडक्ट्स को बेचने के लिए शुरूआत में मप्र से 50 उन गरीब परिवारों के युवाओं को भेजा जाएगा जो फिलहाल रोजगार की तलाश में हैं। इसके लिए राज्य सरकार ने दिल्ली की संस्था जय किसान और आजीविका मिशन से जुड़े किसानों की कंपनियों के बीच अनुबंध कराया है। 
गुड़गांव और एनसीआर में आजीविका प्रोडक्ट्स की बिक्री के लिए संस्था आउटलेट खोलेगी। अगले छह महीने में दिल्ली में ऐसे 20 आउटलेट्स खोले जाएंगे। इसके साथ ही एक कॉल सेंटर भी रहेगा। फिलहाल गुड़गांव की रहवासी कालोनियों को टारगेट किया जाएगा और वहां आजीविका प्रोडक्ट्स की जानकारी पहुंचाई जाएगी। आगे चलकर एनसीआर में यह आउटलेट खोले जाएंगे। गुड़गांव और एनसीआर में रहने वाला कोई भी व्यक्ति या परिवार जय किसान के कॉल सेंटर पर प्रोडक्ट्स की बुकिंग करा सकेगा। बुकिंग कराने के कुछ देर बाद प्रोडक्ट की डिलेवरी उनके घर पर कर दी जाएगी। समूह होम टू होम डिलेवरी के लिए इन 50 युवाओं को पहले ट्रेनिंग देगा और फिर इन्हें मोटर सायकिल से बनाए गए डिलेवरी वाहन दिए जाएंगे। मोटर साइकिल से यह युवा प्रोडक्ट की होम डिलेवरी करेंगे। इनमें जीपीएस सिस्टम होगा ताकि इनकी लोकेशन की जानकारी मिलती रहे और यह दिल्ली की सड़कों पर भटकें नहीं। 
गांव से दिल्ली कैसे पहुंचेंगे प्रोडक्ट
राज्य आजीविका मिशन ने 26 जिलों में किसानों और स्व-सहायता समूहों की कंपनियां बनार्इं हैं। गुड़गांव और एनसीआर में आजीविका प्रोडक्ट्स बेचने के लिए जय किसान संस्था और इन कंपनियों के बीच मिशन ने अनुबंध कराया है। किसानों के खेत से निकलकर अनाज, सब्जियां एवं अन्य उत्पादों को किसानों की कंपनी के पास पहुंचेंगे और यहां पैकेजिंग करके यह सामान जय किसान संस्था को सौंप दिया जाएगा। सामान की कीमत संस्था उसी समय कंपनी को चुका देगी। 
किसानों को लाभ 
अभी किसानों को उनके उत्पादों की अच्छी कीमत नहीं मिल पाती थी। किसान इनका वेल्यू एडीशन नहीं कर पाते और बड़े बाजारों में नहीं पहुंचा पाते। जय किसान संस्था विभिन्न प्रोडक्ट को मंडी रेट से 15 प्रतिशत या इससे अधिक दर पर खरीदेगी। दूसरा लाभ किसानों के सभी प्रोडक्ट आजीविका ब्रांड के नाम से बिकेंगे। यह किसानों का अपना ब्रांड है।
आठ हजार तनख्वाह
जिन 50 युवाओं को पहले दौर में भेजा जाएगा उन्हें समूह आठ हजार रुपए मासिक वेतन देगा। इसके अलावा इनके रहने और दोनों वक्त के भोजन की व्यवस्था की जाएगी। राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन ने अगले छह महीने में प्रदेश से 200 बेरोजगारों को दिल्ली भेजकर इस काम से जोड़ने का लक्ष्य रखा है। इसी तरह दिल्ली में शुरूआती तौर पर 10 हजार ग्राहक बनाने का लक्ष्य भी तय किया गया है। 
ये हैं आजीविका प्रोडक्ट
शबरती आटा, बेसन, मिर्ची, हल्दी, धनिया, अचार, मुरब्बा, गुड़, शहद, दालें, पायदान, कारपेट, मिट्टी के बर्तन, चूड़ियां, अगरबत्ती, हैंडलूम आयटम, सब्जियां, चना, मूंगफली, वाशिंग पावडर, साबुन, सेनेटरी नेपकिन सहित 108 अन्य प्रोडक्ट।
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प्रोडक्ट्स की डिजिटल ब्रांडिंग होगी, मंत्री करेंगे खरीदने की अपील
गोपाल भार्गव
गुड़गांव और एनसीआर में आजीविका प्रोडक्ट्स की डिजिटल ब्रांडिंग की जाएगी। इसके लिए जय किसान संस्था ने बकायदा पूरा कैंपेन तैयार किया है। मंगलवार को पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव ने इस कैंपेन की लांचिंग की। इस कैंपेन में आजीविका प्रोडक्टस की जानकारी ई-मेल, एमएमएस, फेसबुक, ट्विटर, यू-ट्यूब आदि सोशल मीडिया प्लेटफार्म से की जाएगी। यू-ट्यूब पर आजीविका प्रोडक्टस को लेकर एक वीडियो फिल्म दिखाई देगी। इस वीडियो फिल्म में मंत्री भार्गव और विभागी की एसीएस अरूणा शर्मा आजीविका प्रोडक्ट्स की खूबियों को बताकर इन्हें खरीदने की अपील भी कर रहे हैं। 
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दिल्ली में आजीविका प्रोडक्ट जय किसान समूह के माध्यम से बेचने की योजना है ताकि किखसानों और समूह की महिलाओं को उनके प्रोडक्ट का सही दाम मिल सके। शुरूआती तौर पर शहडोल जिले से 50 बेरोजगार युवाओं को दिल्ली भेजा जा रहा है। यह दिल्ली में होम टू होम डिलेवरी करेंगे। 
एलएम बेलवाल, मिशन संचालक, एनआरएलएम

मप्र में आजीविका मिशन के माध्यम से किसान कई तरह के उत्पाद तैयार कर रहे हैं और इनकी क्वालिटी भी अन्य उत्पादों से बेहतर है। हमारी संस्था गुड़गांव और एनसीआर में इन उत्पादों की होम टू होम डिलेवरी करेगी। हम 24 राज्यों में 60 हजार किसानों से जुड़कर पहले से काम कर रहे हैं। 16 सितंबर तक आजीविका प्रोडक्ट्स के करीब 10 हजार कस्टमर तैयार करने का लक्ष्य हमने रखा है।
संजीव शर्मा, संस्थापक, जय किसान

सोमवार, 31 अगस्त 2015

प्रशासन में हिन्दी के कलमकार

राजधानी भोपाल में अगले महीने विश्व हिंदी सम्मेलन होने जा रहा है। दुनिया भर से हिंदी बोलने वाले, पढ़ने वाले और इस भाषा को जानने वाले इस सम्मेलन में जुट रहे हैं। मप्र के प्रशासनिक क्षेत्र में हिंदी सेवियों की लंबी श्रृंखला है। इन्होंने साहित्यिक रूप से तो हिंदी को समृद्ध किया है, सरकारी कामकाम में भी हिंदी के उपयोग को बढ़ावा दिया है। कई अफसर हिंदी में कथा, कहानी, कविताएं लिखते हैं तो कई अफसर शुद्ध और  सुलेख लेखन के लिए जाने जाते हैं। 
‘पहाड़ी कोरबा’
वर्ष 1987 बैच के आईएएस मनोज श्रीवास्तव का हिन्दी के प्रति अगाथ प्रेम है। यही कारण है कि उन्होंने हिन्दी साहित्य से एमए भी किया है। भले ही उनकी अंग्रेजी भाषा पर भी अच्छी पकड़ है, लेकिन वे हमेशा से सरकारी कामकाज के अलावा अन्य विशेष आयोजनों में हिन्दी को ज्यादा अपनाने पर जोर देते रहे हैं। उनकी खुद भी हिन्दी लेखन में बेहद गहरी दिलचस्पी है। वे अब तक हिन्दी की कई पुस्तकें लिख चुके हैं। इनमें 7 पुस्तकें कविता की हैं और 12 पुस्तकें सुंदरकांड पर लिखी हैं। इनके अलावा ‘शक्ति प्रसंग’, ‘पंचशील’, ‘पहाड़ी कोरबा’, ‘व्यतीत’, ‘वर्तमान और वैभव’, ‘यथाकाल’ और ‘शिक्षा में संदर्भ और मूल्य’ रचना भी उन्होंने लिखी है। वे व्यस्तता को बहुत कीमती मानते हैं और यह व्यस्तता उनके कैनवास को समृद्ध बनाती है। 
‘बात का बतंगड़’
वर्ष 1985 बैच के आईएएस विनोद सेमवाल के लिए हिन्दी बेमिसाल है। वे अन्य लोगों को भी हिन्दी भाषा अपनाने की नसीहत देते हैं। उन्हें खुद भी हिन्दी लेखन का बेहद शौक है और अब तक तीन पुस्तकें हिन्दी में लिख चुके हैं। उनकी पहली पुस्तक ‘बात का बतंगड़’ 1996 में, ‘साहब बहादुर’ 1998 में आई थी। तीसरी पुस्तक ‘पुतलों की फजीहत’ 2015 में आई है। उनकी पुस्तकें व्यंग्य पर आधारित हैं, लेकिन वर्तमान में वे एक पुस्तक कहानी पर लिख रहे हैं। लेखन एवं पढ़ने के प्रति उनकी दिलचस्पी बचपन से रही है। बचपन में वे पत्र-पत्रिकाओं में पत्र संपादक के नाम एवं आर्टिकल लिखते थे, लेकिन सिविल सर्विस में आने के बाद से उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं में लिखना बंद कर दिया। इसके पीछे समय नहीं रहना सबसे बड़ा कारण रहा, लेकिन उन्होंने लिखने की आदत आज तक नहीं छोड़ी। 

‘21 बिहारी एक मद्रासी’
वर्ष 1982 बैच के आईएएस के. सुरेश मूलत: साउथ इंडियन हैं और उनकी अंग्रेजी के अलावा स्थानीय भाषा पर भी अच्छी पकड़ है। इसके बावजूद भी हिन्दी लेखन उन्हें सुकून देता है। वे सरकारी कामकाज में भी हिन्दी भाषा को ज्यादा तवज्जो देते हैं। उन्होंने अब तक दो पुस्तकें लिखी हैं, इनमें ‘21 बिहारी एक मद्रासी’ और ‘न की जीत हुई’। वे वर्तमान में भी एक पुस्तक पर काम कर रहे हैं, जो कि जल्द ही प्रकाशित होने की उम्मीद है। वैसे तो बचपन में उनकी परवरिश दक्षिण भारतीय परिवार में हुई, लेकिन उनकी दोस्ती हिन्दी भाषी लोगों से ज्यादा रही है। हिन्दी भाषा का अच्छा ज्ञान होने का कारण भी यही है। व्यवस्ताओं के बीच में वे सुबह-शाम लेखन के लिए समय निकालते हैं। इसके अलावा उन्हें बर्ड वाचिंग करना भी बेहद अच्छा लगता है। 
‘धुनों की यात्रा’
वर्ष 1990 बैच के आईएएस पंकज राग हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि भी हैं। साहित्य और सिनेमा, दोनों तरह के लेखन में उन्हें महारत हासिल है। साहित्यिक हिंदी की बात हो या कार्यालयीन हिंदी, दोनों में वे हिंदी के आदर्शों और मानकों का अनुसरण करते हैं। मूलत: बिहार के रहने वाले पंकज राग की प्रमुख कृतियां ‘भूमंडल की रात है’ और ‘धुनों की यात्रा’ है। धुनों की यात्रा के लिए उन्हें प्रतिष्ठित केदार सम्मान से सम्मानित किया गया है। उनके कविता संग्रह की एक से आठ की श्रृंखला प्रकाशित हो चुकी है। ‘यह भूमंडल की रात है’ की कविताएं लंबे समय से पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं। पंकज की कविताएं उनके जीवन के भीतर से उपजी हुई कविताएं हैं। पंकज राग के साथ ‘धुनों की यात्रा’ पर निकलना किसी भी व्यक्ति के लिए एक अविस्मरणीय अनुभव बन सकता है। यह पुस्तक 1931 से 2005 तक के संगीतकारों पर केंद्रित है। पंकज राग को कविताएं लिखने का शौक बचपन से ही था। 13 वर्ष की उम्र में ही बचपन की लिखित कविताओं का एक संग्रह ‘पंकज राग की कविताएं’ के नाम से 1978 में प्रकाशित हुआ। 
हिन्दी से गहरा लगाव

वर्ष 1987 बैच के आईपीएस अधिकारी पवन जैन का भी हिन्दी के प्रति बेहद गहरा लगाव है। वे हिन्दुस्तान के कई बड़े मंचों से हिन्दी में कविता पाठ कर चुके हैं। उन्होंने अपनी रचनाएं दिल्ली के लाल किले से भी पढ़ी है। कवि सम्मेलनों के प्रति उनकी दिलचस्पी बचपन से रही है। जब वे बचपन में गांव में रहते थे तो वहां एवं आसपास होने वाले सभी कवि सम्मेलनों को सुनने जाते थे। 

‘उम्र की 21 गलियां’
वर्ष 2004 बैच के आईएएस अधिकारी राजीव शर्मा हिन्दी साहित्य और सम्मेलनों के प्रमुख चेहरे हैं। उनके तीन कविता संग्रह ‘उम्र की 21 गलियां’, ‘धूप के ग्लेशियर’, और ‘प्रिज्म’ प्रकाशित हो चुके हैं।वर्ष 2011 में मंडला पर उनकी किताब ‘युग-युगीन मंडला’ प्रकाशित हुई थी। शर्मा अभी आदि शंकराचार्य पर एक उपन्यास लिखने की तैयारी कर रहे हैं। हिन्दी भाषा पर उनकी पकड़ मजबूत है। 
प्रशासनिक कामकाज में भी हिंदी को बढ़ावा दे रहे हैं। अन्य को भी इसके लिए प्रेरित करते हैं। 

अनुपम राजन
वर्ष 1993 बैच के आईएएस अधिकारी और आयुक्त जनसंपर्क अनुपम राजन हिन्दी में शुद्ध लेखन के लिए जाने जाते हैं। प्रशासनिक गलियारों में उनकी हिन्दी चर्चा में रहती है। खासकर लेखन के मामले में। शुद्ध और सुलेख हिन्दी उनकी पहचान बन गई है। उनका वाक्य विन्यास उत्कृष्ट है। व्याकरण की त्रुटियों की गुंजाईश नहीं होती। प्रश्नवाचक, विस्मयबोधक, पूर्ण विराम और अल्पविराम का वे बेहद ध्यान रखते हैं। सरकारी कामकाज में हिंदी का अधिकतम प्रयोग करते हैं। 

आईएनएस दाणी
हाल ही में रिटायर हुए मप्र कॉडर के वरिष्ठ अधिकारी इंद्रनील शंकर दाणी मप्र की नौकरशाही में हिंदी के खासे जानकार थे। उन्होंने मप्र के पूर्व मुख्य सचिव रहे स्व. आरपीव्हीपी नरोन्हा द्वारा अंग्रेजी में लिखी गई किताब ‘टेल टोल्ड बाय एन इडियट’ का हिन्दी में अनुवाद किया है।
  अश्विनी कुमार राय
वर्ष 1990 बैच के आईएएस और पीएचई विभाग के प्रमुख सचिव अश्विनी कुमार राय की हिंदी प्रशासनिक गलियारों में चर्चा का विषय रहती है। सरकारी कामकाज में हिन्दी के शुद्ध के साथ-साथ कठिन माने जाने वाले शब्दों का भी प्रयोग करते हैं। राय हिन्दी के अच्छे जानकार हैं। 
अनुराग जैन
1989 बैच के आईएएस अधिकारी एवं वर्तमान में पीएमओ में संयुक्त सचिव अनुराग जैन का हिन्दी से लगाव रहा है। वे हिन्दी में शुद्ध लेखन करते हैं। कार्यालीयन हिन्दी में भी उनके वाक्य, विन्यास और व्याकरण की दृष्टि से श्रेष्ठ होते हैं। उनकी हिन्दी प्रशासनिक गलियारों में चर्चा में रहती है।


हरिरंजन राव
वर्ष 1994 बैच के आईएएस और मुख्यमंत्री के सचिव हरिरंजन राव की अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी भाषा पर भी खासी पकड़ है। राव का न केवल हिन्दी लेखन बहुत शुद्ध है, बल्कि उनकी हिन्दी लेखनी काफी सुंदर हैं। नोटशीट पर हिंदी में लिखी गई उनकी टिप्पणी के अक्षर बेहद कलात्मक होते हैं।
संजय शुक्ला
1994 बैच के आईएएस और मध्य क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी के सीएमडी संजय शुक्ला भी हिन्दी के मामले में प्रशासनिक गलियारों में जाने जाते हैं। हिन्दी के बेहद संतुलित और छोटे वाक्यों का उपयोग वे सरकारी कामकाज में करते हैं। लेखन शुद्ध है और भाषा पर खासी पकड़ है। 


अशोक भार्गव
वर्ष 2002 बैच के आईएएस अधिकारी और शहडोल कलेक्टर अशोक कुमार भार्गव भी उनके हिंदी प्रेम के लिए जाने जाते हैं। उन्हें हिंदी ह्रदय सम्राट भी पुकारा जाता है। सरकारी कामकाज में शुद्ध हिन्दी लेखन तो करते ही हैं, लेख और कविताएं भी वे अक्सर लिखते रहते हैं। 
जीपी श्रीवास्तव
वर्ष 1997 बैच के आईएएस अधिकारी जीपी श्रीवास्तव हिन्दी में कविताओं और कहानियों के लेखन के शौकीन हैं। वे अब तक हिन्दी में 100 से ज्यादा कविताएं और 28 कहानियां लिख चुके हैं। उनका हिन्दी प्रेम सरकारी कामकाज में भी दिखाई देता है और ज्यादातर काम हिंदी में करते हैं।
कवींद्र कियावत
वर्ष 2000 बैच के आईएएस अधिकारी और उज्जैन जिले के कलेक्टर कवींद्र कियावत हिन्दी के मामले में भी चर्चित अफसर हैं। वे न केवल अच्छी हिन्दी लिखते हैं, बल्कि बोलते समय भी हिन्दी के बेहतर शब्दों का प्रयोग करते हैं। संवाद में बोलचाल और साहित्यिक हिंदी का पुट है। 
पुखराज मारू
सेवानिवृत्त हुए आईएएस अधिकारी डॉ. पुखराज मारू हिंदी के लेखकों में शुमार हैं। डॉ. मारू की पुस्तक ‘ग़ज़लें धूप-छाँव की’ के दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। हिन्दी ग्रंथ अकादमी से प्रकाशित ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता’ उनके महत्वपूर्ण रचनात्मक कार्यों में से एक हैं। 
लाजपत आहूजा
मप्र जनसंपर्क के संचालक रहे और वर्तमान में माखनलाल चतर्वुेदी पत्रकारिता विवि के रैक्टर लाजपत आहूजा की गैर हिंदी भाषी होने के बावजूद हिंदी पर बेहतर पकड़ है। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति ने उन्हें हिंदी सम्मान से सम्मानित किया है। हिंदी में आर्थिक विषयों पर बेहतर लेखन करते हैं। 


मंगलवार, 25 अगस्त 2015

अमलतास, आमला और अश्वगंधा को बचाओ, 26 प्रजातियां संकट में

- जैव जगत/व्यवस्था की महत्वपूर्ण कड़ियों को बचाने की कवायद
- जमुनापारी, साहीवाल और कड़कनाथ नस्लें भी संकट के दौर में
- संरक्षण के लिए सरकार ने बनाया एक्शन प्लान
- आला अफसरों को किया जाएगा सक्रिय
डॉ. अनिल सिरवैयां, भोपाल
9424455625, sirvaiyya@gmail.com

मप्र में जैव व्यवस्था की महत्वपूर्ण कड़ियों के 25 से अधिक पौधे और करीब दो दर्जन से ज्यादा पौधों की प्रजातियां संकट में हैं। इसी तरह औषधीय पौधों की कई दुर्लभ प्रजातियां भी लुप्त होने की स्थिति में आ चुकी हैं। अमलतास, आमला, अश्वगंधा और सर्पगंधा जैसे पौधों की प्रजातियां और बकरी की जमुनापारी, गाय की साहीवाल और मुर्गे की कड़कनाथ जैसे पशुओं नस्लों को बचाना मुश्किल हो रहा है। मप्र राज्य जैव विविधता बोर्ड की मानें तो इन महत्वपूर्ण घटकों का लुप्त होना जैव विविधता के लिए हर सूरत में हानिकारक है। इसलिए इनका संरक्षण जरूरी है। केंद्र और राज्य सरकार इस दिशा में सक्रिय हैं, इसलिए जैव घटकों के दोहन के लिए नियम-प्रक्रियाओं और कानून बनाए गए हैं। लोगों को जागरूक किया जा रहा है ताकि इनका संरक्षण हो सके। 
पौधों की इन प्रजातियों पर संक

अडॅूसा, बील, चिरायता, सतावर, सिंदुर, अमलतास, गूग्गल, आंवला, गधा पलाश, कैथा, कृष्णावट, गुलर, खिरनी, हरिचंपा, मीठी नीम, हार सिंगार, सोनापाठा, कनकचंपा, सर्पगंधा, सीता अशोक, अर्जुन, बहेड़ा, गिलोय, परासपीपल, निर्गुन्डी और अश्वगंधा।
ये भी संकट के दौर में
कठिया गेहूं, कपूरी धान, देशी मंूग, मुर्गे की कड़कनाथ नस्ल, बकरी की स्थानीय नस्ल जमुनापारी, गाय की देशी नस्ल साहीवाल, नोनी एवं अचार के पौधे।

बचाने की कवायदें
जैव विविधता बोर्ड ने पौधों की लुप्त होती 25 प्रजातियों के लिए शैक्षणिक संस्थानों, अशासकीय संस्थाओं के साथ-साथ ग्रामीणों को सहारा लिया है। बोर्ड ने हाल ही इन 25 प्रजातियों के सात हजार से ज्यादा पौधे बांटे। जिन्हें पौधे बांटे गए उन्हें इनके संरक्षण की जिम्मेदारी भी दी गई। बोर्ड ऐसे सभी इच्छुक व्यक्तियों और संस्थाओं को इन प्रजातियों के पौधे उपलब्ध करा रहा है जो इनके संरक्षित करना चाहते हैं। 

आला अफसरों को जिम्मेदारी
जैव विविधता के संरक्षण के लिए राज्य सरकार वन विभाग के आला अफसरों को सक्रिय करने जा रही है। जैव विविधता बोर्ड ने इसके लिए एक्शन प्लान तैयार किया है। इसके तहत 31 अगस्त और एक सितंबर को भोपाल में सीसीएफ, सीएफ और डीएफओ स्तर के भारतीय वन सेवा के अधिकारियों को इस एक्शन प्लान की जानकारी और ट्रेनिंग दी जाएगी। इन्हें जैव विधिवता के प्रत्येक पहलू और संरक्षण के लिए बने नियम-कानूनों पर देशभर से बुलाए गए विद्वान ट्रेनिंग देंगे। टेÑनिंग देने के लिए नेशनल लॉ स्कूल बैंगलुरु के डॉ. एमके रमेश, आईआईएफएम भोपाल के प्रो. अभय पाटिल, लॉ यूनिवर्सिटी के डॉ. एल पुष्पकुमार और वनस्पतिशास्त्री एके कान्डया प्रमुख हैं। 
मैदानी अमले को भी ट्रेनिंग
संरक्षण के लिए बने एक्शन प्लान में वन रक्षक सहित वन विभाग के मैदानी अमलों को जिम्मेदारी सौंपी जा रही है। इससे पहले इन्हें जैव विविधता के मायने और महत्व समझाया जा रहा है। वन विभाग स्कूल और कॉलेजों में वन रक्षकों को जैव विविधता की आवश्यकता, मप्र में स्थिति, नष्ट होती प्रजातियों-नस्लों की जानकारी देकर इस दिशा में किए जाने वाले कार्यों और उनसे सरकार की अपेक्षाओं पर विस्तृत ट्रेनिंग दी जा रही है। 
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पौधों की 25 से अधिक प्रजातियां, पशुओं की नस्लें और परंपरागत अनाज की विभिन्न किस्में लुप्त होने की स्थिति में हैं। जैव विविधता के संरक्षण के लिए हम मैदानी अमले से लेकर वरिष्ठ अधिकारियों तक को ट्रेनिंग दे रहे हैं। संरक्षण के लिए कई जिलों में तेजी से काम किया जा रहा है। हमारी कोशिश है कि हम लुप्त हो रही सभी प्रजातियों और नस्लों को बचाएं। इसके लिए हम जनसहयोग भी ले रहे हैं। हाल ही में हमने सात से अधिक ऐसे पौधे बांटें हैं जो लुप्त होती प्रजातियों के हैं। कोई भी इच्छुक व्यक्ति यह पौधे बोर्ड से प्राप्त कर सकता है। 
डॉ. एसपी रयाल
सदस्य सचिव, मप्र राज्य जैव विविधता बोर्ड

शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

मैं गरीब नहीं हूं...

- प्रदेश के युवक ने पेश की मिसाल
- गरीबी रेखा से अपना नाम हटाने कलेक्टर को दिया आवेदन
- 10 हजार कमाता है गंगाराम
डॉ. अनिल सिरवैयां, भोपाल
9424455625
sirvaiyya@gmail.com

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संपन्न देश वासियों से अपील कर रहे हैं कि वे गरीबों के हक में रसोई गैस की सब्सिडी छोड़ दें। इस अपील का अभी व्यापक असर होना बाकी है लेकिन इस बीच मध्यप्रदेश के एक छोटे से गांव से एक खबर निकली है, जो पूरे देश के लिए प्रेरणा बन सकती है। एक तरफ सक्षम लोग सब्सिडी छोड़ने से कतरा रहे हैं तो यहां 10 हजार रुपए महीना कमाने वाले एक युवक को कोई गरीब कहे, ये बात उसे पसंद नहीं है। इसीलिए उसने सरकार से कह दिया है कि उसका नाम गरीबी रेखा (बीपीएल) की सूची से हटा दिया जाए।

मप्र के आगर-मालवा के ग्राम छन्देड़ा के रहने वाले 34 साल के इस दलित युवक का नाम गंगाराम सूर्यवंशी है। गंगाराम ने 14 जुलाई को जिले कलेक्टर को जनसुनवाई के दौरान एक आवेदन देकर उसका नाम गरीबी रेखा की सूची से हटाने का आग्रह किया है। वर्ष 2002-03 में गंगाराम का नाम जिले की बीपीएल सर्वे 21 पर दर्ज है। गंगाराम ने कलेक्टर से कहा कि अब उसकी मासिक आय 10 हजार रुपए हो गई है, अब मैं गरीबी रेखा की सूची से ऊपर हो गया हूं, इसलिए मेरा बार-बार यह सोचने के लिए मजबूर करता है कि मैं अपने-आपको गरीब क्यों समझूं। मेरा नाम बीपीएल सूची से हटा दिया जाए ताकि मैं इस कुंठा से मुक्त हो सकूं। गंगाराम का कहना है कि अब वह अन्य लोगों को भी इस दिशा में प्रेरित करना चाहता है ताकि जो लोग वास्तव में गरीब हैं, उन्हें उनके अधिकार मिल सकें।
गरीबी से संघर्ष
गंगाराम का अब तक जीवन गरीबी से संघर्ष करते हुए बीता है। पिता की अस्थाई आय के कारण परिवार में कभी भी अच्छे दिन नहीं रहे। गांव में मजदूरी से लेकर हर वह काम उसने किया, जिससे दो पैसे मिल सकें। पैसे कमाने के लिए उसने चित्रकारी करना भी सीख लिया है और यहीं से उसके जीवन में बदलाव का दौर शुरू हो गया। गंगाराम के परिवार में मां के अलावा पत्नी और दो बच्चे हैं। दोनों बच्चे पढ़ने जाते हैं। बकौल गंगाराम अब उसे किसी के आगे हाथ फैलाने की जरूरत नहीं है। आगर के अनुसूचित छात्रावास में रहकर हायर सेकेण्डरी करने वाले गंगाराम ने हाल ही में बीए की परीक्षा भी पास कर ली है। 
सारा श्रेय डीपीआईपी को
गंगाराम अपनी ‘अमीरी’ का सारा श्रेय डीपीआईपी यानी इंदिरा गांधी गरीबी उन्मूलन परियोजना को देते हैं। डीपीआईपी का दल जब गांव में पहुंचा तो उसकी नजर गंगराम की चित्रकारी पर पड़ी। परियोजना के प्रचार-प्रसार का काम मिल गया। उसने गांव में छह लोगों का एक समूह बनाया, सिलाई का काम सीखा। डीपीआईपी ने उसे गांव के लिए रिसोर्स पर्सन बनाया। इन सबसे गंगाराम की आय शुरू हो गई। उसने वाटरशेड के काम का अनुभव लिया और इसी के साथ कई काम किए। 2006 में डीपीआईपी ने समर्थ किसान प्रोड्यूसर प्रायवेट लिमिटेड कंपनी गंगाराम को इससे जोड़ा। 2011 में उसे आजीविका मित्र बनाया। इन सभी से उसकी थोड़ी-थोड़ी आय होती रही। गंगाराम कहते हैं कि वर्तमान में उसे कंपनी से जुड़कर 8 हजार रुपए हर महीने मिलते हैं। इस कंपनी के माध्यम से गांव स्तर पर खरीदी-बिक्री करवाता हूं जिसके कमीशन के रूप में दो हजार रुपए तक हर महीने मिल जाते हैं। इस तरह उसकी आय अब 10 हजार रुपए महीना हो गई है। 
गंगाराम को बनाएंगे ब्रांड एंबेस्डर
डीपीआईपी के परियोजना समन्वयक एलएम बेलवाल कहते हैं कि डीपीआईपी परियोजना में ऐसे कई हितग्राही हैं जो गरीबी से जूझ रहे थे लेकिन अब उनकी सलाना आमदनी एक लाख से अधिक हो गई है, इन्हें हमने लखपति क्लब में शामिल हैं। बेलवाल कहते हैं कि गंगाराम सूर्यवंशी को हम अपना ब्रांड एंबेस्डर बनाएंगे ताकि वह प्रदेश में भर जाकर लोगों को प्रेरित कर सके। 

150 से अधिक राशन कार्ड सरेंडर 
राजधानी भोपाल में बीपीएल कार्ड बनवाने के बाद करीब 150 बीपीएल कार्डधारकों ने अपने राशनकार्ड सरेंडर किए हैं। यह आंकड़ा पिछले तीन साल का है। इनमें कुछ शिक्षक से लेकर बड़े-बडेÞ दुकान व मकान स्वामी हैं। इनमें से कुछ ने स्वप्रेरणा से अपने बीपीएल कार्ड सरेंडर किए हैं तो कुछ ने कार्यवाही के डर से कार्ड जमा कर डाले हैं। पिछले साल 40 राशनकार्ड सरेंडर हुए। 

शनिवार, 18 जुलाई 2015

स्वच्छता और सम्मान के लिए दो कदम आगे

स्वच्छता के लिए जो किया जाए वह कम है। नए आईडिया और नई चीजों के इस्तेमाल से इस सोच को आगे बढ़ाने में और मदद मिलती है। मप्र में स्वच्छता अभियान में कुछ ऐसे ही नवाचार हो रहे हैं। भोपाल में बांस शिल्पकारों की बस्तियों में बांस के शौचालय यानी बैंबू टॉयलेट बनाने की तैयारी की जा रही है तो धार, अलीराजपुर, मंडला, डिंडोरी और राजगढ़ जैसे जिलों में लोग टायलेट के साथ बाथरूम भी बन रहे हैं। यहां महिलाएं कह रही हैं, खुले में शौच ही नहीं, नहाना भी गलत है........
Key word : Bamboo toilets, Bhopal, Madhya Pradesh, Bathroom, NRLM

डॉ. अनिल सिरवैयां, भोपाल
9424455625

sirvaiyya@gmail.com
राजधानी की चार बस्तियों में बनेंगे 40 बैंबू टॉयलेट
राजधानी की बांसखेड़ी, टीलाजमालपुरा, इंदिरा नगर और अर्जुन नगर। इन गरीब बस्तियों में रहने वाले ज्यादातर लोग बांस का काम करते हैं। इन बस्तियों की पहचान जिस बांस से है, उसी से अब यहां शौचालय बनाए जाएंगे। ऐसा इसलिए भी किया जा रहा है ताकि बांस के परंपरागत उपयोग के साथ-साथ यहां के कारीगर इसके आधुनिक उपयोग की कला भी सीख सकें। 
मप्र राज्य बांस मिशन इन बस्तियों के कुल 40 बैंबू टायलेट बनाएगा। मप्र में इस तरह के टॉयलेट पहली बार बनेंगे। भोपाल में यह पायलट प्रोजेक्ट होगा। इनमें कमोड को छोड़कर सब कुछ बांस बनेगा। लागत करीब 15 हजार प्रति टायलेट होगी। खास बात यह है कि यह टॉयलेट किसी एजेंसी से नहीं बनवाए जाएंगे। इन बस्तियों में रहने वाले बांस शिल्पकारों को ही टायलेट बनवाए जाएंगे। इनका मार्गदर्शन वे संस्थाएं करेंगी भारत में इस तरह का काम कर रही हैं। इन बांस कारीगरों को टेÑनिंग देकर मास्टर ट्रेनर के रूप में तैयार किया जाएगा ताकि दूसरे स्थानों पर यही लोग बैंबू टायलेट बना सके। बैंबू टायलेट बनाने का यह काम स्वच्छ भारत मिशन के तहत होगा। 

भोपाल की चार बस्तियों को बैंबू टॉयलेट के लिए चयनित किया गया है। इनमें बांस शिल्पकार रहते हैं। इन्हीं से टायलेट बनवाए जाएंगे ताकि यह मास्टर ट्रेनर के रूप में तैयार हो सकें। बैंबू टायलेट किफायती हैं और पानी से यह खराब भी नहीं होते। 
- डॉ. एके भट्टाचार्य, मिशन संचालक, मप्र बांस मिशन
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शौच ही नहीं, खुले में नहाना भी ठीक नहीं
स्वच्छता के लिए स्वच्छ भारत अभियान में केवल टायलेट बनाने पर ही सबसे ज्यादा जोर है। यही काम पूरे प्रदेश में हो रहा है। गांव-गांव में घरों में शौचालय बनाए जा रहे हैं लेकिन  मप्र के अलीराजपुर, धार, राजगढ़, डिंडोरी और मंडला जिले में इससे एक कदम आगे जाकर काम हो रहा है। 
यहां महिलाएं कह रही हैं कि खुले में शौच करना ही गलत नहीं है, बल्कि खुले में नहाना भी सम्मान के खिलाफ है, इसलिए मप्र राज्य आजीविका मिशन ने टॉयलेट के साथ बाथरूम बनाने का मॉडल विकसित किया है। स्वच्छ भारत मिशन के तहत प्रति शौचालय निर्माण के लिए 12 हजार की राशि तय है। इसी राशि में बाथरूम बनाने के लिए मिशन ने यहां लोगों को प्रेरित किया। स्व-सहायता समूह अपनी बैठकों में शौचालय और बाथरूम बनाने का संकल्प पारित करते हैं। यह राशि सीधे उनके खातों में जमा की और इसमें संबंधित हितग्राही ने अपनी तरफ एक दो हजार और मिलाकर बाथरूम भी बना लिए। स्वच्छ भारत मिशन में यह देश में अपनी तरह का पहला मॉडल है। इन टायलेट और बाथरूम में टाईल्स लगाए गए हैं। इन शौचालयों के निर्माण में अधिकांश काम हितग्राहियों ने ही किया। 

स्वच्छ भारत मिशन के तहत 14 हजार शौचालय और इनके साथ बाथरूम भी बना रहे हैं। हमने पैसा सीधे हितग्राही के खाते में जमा किया। कुछ पैसा हितग्राही भी मिला रहे हैं। हम यह काम स्व-सहायता समूहों के माध्यम से कर रहे हैं। 
- एलएम बेलवाल, परियोजना संचालक, मप्र राज्य आजीविका मिशन

सोमवार, 29 जून 2015

जन-धन योजना के 60 प्रतिशत खाते खाली

- 70 लाख से ज्यादा लोगों ने नहीं दिखाई योजना में रुचि 
- एक नए पैसे का भी नहीं किया लेन-देन
Keyword : PMJDY, Madhya Pradesh, Peoples Samachar, DIFMP, State Level Bankers Commiittee, Narendra Modi, AADHAR, Central Bank of India, Bhopal


डॉ. अनिल सिरवैयां, भोपाल
9424455625
sirvaiyya@gmail.com

केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी प्रधानमंत्री जन-धन योजना में मप्र के लोगों ने ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। योजना के तहत खोले गए कुल बैंक खातों में से 60 प्रतिशत से अधिक खातों में कोई ट्रांजेक्शन (लेन-देन) नहीं हुआ। खाते जब से खुले हैं तब से खाली पड़े हैं। लोगों की ‘उपेक्षा’ ने बैंकों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। योजना के तहत प्रत्येक खाताधारक को एक लाख के बीमा सुरक्षा दी गई है जिसके लिए खाते खुलने के 45 दिनों के भीतर कम से कम एक बार ट्रांजेक्शन होना जरूरी है। 
आपको बता दें कि प्रधानमंत्री जन-धन योजना के पहले चरण में मप्र में कुल एक करोड़ 20 लाख लोगों के बैंक खाते खुले हैं। यह खाते मार्च 2015 तक खोले गए थे। इस हिसाब से करीब 70 लाख लोगों ने अब तक अपने खातों की सुध नहीं ली है। हाल ही में राज्य स्तरीय बैंकर्स समिति की बैठक में इस मामले पर विभिन्न बैंकों ने अधिकारियों ने चिंता जताई है। बैंक अधिकारियों का कहना कि योजना को लेकर आम लोगों में जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है। यहां भी उल्लेखनीय है कि इनमें अधिकांश खातों को खुले हुए 45 दिनों से ज्यादा का समय हो चुका है। इस लिहाजा से ये खाताधारक एक लाख के दुर्घटना बीमा के लिए भी अपात्र हो चुके हैं। 
बीमा योजनाओं केवल 24 लाख कवर
प्रधानमंत्री जन-धन योजना के दूसरे चरण में 9 मई को लांच की हुर्इं प्रधानमंत्री जीवन ज्योति योजना, प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना और अटल पेंशन योजना में 16 जून तक प्रदेश में 73 लाख 81 हजार लोगों का ही बीमा हो पाया। इससे पहले 9 जून तक यह आंकड़ा केवल 24 लाख 38 हजार था। राज्य सरकार ने इन तीनों योजनाओं में दो करोड़ 92 लाख 60 हजार लोगों को कवर रखने का लक्ष्य रखा था। सरकार ने कहा था कि योजना की लांचिंग से तीन महीने के भीतर इस लक्ष्य को हासिल किया जाएगा। करीब दो महीने में लक्ष्य 50 प्रतिशत भी लक्ष्य की पूर्ति नहीं हो पाई। शेष लोगों को योजनाओं में कवर करने के लिए सरकार के लिए पास जुलाई का महीना बचा है। 
मंत्रियों की लगी थी ड्यूटी
बीमा और पेंशन योजनाओं में अधिक से अधिक लोगों को कवर करने के लिए राज्य सरकार ने बैंकों को सहयोग देने के लिए शिविर आयोजित करने के निर्देश कलेक्टरों को दिए थे। इसी तरह राज्य सरकार के मंत्रियों की ड्यूटी भी इन योजनाओं के लिए लगाई थी लेकिन इन प्रयासों के बाद भी 50 प्रतिशत लक्ष्य तक भी पूरा नहीं हुआ। 
इसलिए धीमी है रफ्तार
- योजनाओं के फार्म पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं है।
- बीमा और बीसी एजेंटों को किसी प्रकार के कमीशन की सुविधा नहीं इसलिए वे दिलचस्पी नहीं ले रहे।
अब ये होगा
- जिला मुख्यालयों तक बड़ी संख्या में फार्म पहुंचाए जाएंगे। बैंक मैनेजरों की जिम्मेदारी होगी।
- समाचार पत्रों में भरकर फार्म बांटे जाएंगे।
- बीमा कंपनियों का सहयोग भी लिया जाएगा। 
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आधार लिंकेज में भी पिछड़े
प्रदेश में करीब 71 प्रतिशत लोगों के आधार नंबर हैं लेकिन इनमें से केवल 53 प्रतिशत लोगों ने अपने आधार नंबर को अपने बैंक खातों से लिंक कराया है। उल्लेखनीय है कि केंद्र-राज्य सरकार की कई योजनाओं के लाभ के लिए बैंकों खातों से आधार नंबर को लिंक कराना अनिवार्य किया गया है। बैंक कमेटी की बैठक में इसके लिए भी भी बैंक अधिकारी जागरूकता की कमी बताई। 
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इस मामले पर सरकार का पक्ष जानने के लिए राज्य के वित्त मंत्री जयंत मलैया एवं राज्य सरकार के प्रवक्ता मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा से संपर्क किया गया लेकिन दोनों मंत्रियों का फोन लगातार बंद रहा। 
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इन बहुप्रचारित योजनाओं में लोगों का रूझान नहीं होना बताता है कि वे उन 15 लाख रुपयों का इंतजार कर रहे हैं जो काला धन वापस आने से लोगों के हिस्से में आने वाले थे। शायद इसीलिए 60 प्रतिशत लोगों ने जन-धन योजना के खातों में कोई लेन-देन नहीं किया।
- केके मिश्रा, मुख्य प्रवक्त, मप्र कांग्रेस कमेटी

शुक्रवार, 19 जून 2015

100 करोड़ का चिकन कारोबार महिलाओं के हाथों में

- प्रदेश में हर साल बिकता है औसत 500 करोड़ का चिकन
- 4 हजार महिलाएं करती हैं 100 करोड़ का कारोबार 
- कुल कारोबार में 20 प्रतिशत भागीदारी
Key word : broiler chicken, NRLM, DPIP, Belwal, Women Entrepreneur, Peoples, Sirvaiya, Madhya Pradesh, 
डॉ. अनिल सिरवैयां, भोपाल
9424455625
sirvaiyya@gmail.com
मप्र में हर साल औसत 500 करोड़ का ब्रायलर चिकन बिकता है। प्रदेश में 500 करोड़ के चिकन कारोबार में करीब 100 करोड़ का कारोबार महिलाओं के हाथों में हैं। यानी पूरे कारोबार में उनकी 20 प्रतिशत की भागीदारी है। पिछले साल इन महिलाओं ने 32 लाख किलो चिकन आसैर 88 लाख मुर्गे बेचे थे। 

प्रदेश के आठ जिलों की यह कुल चार हजार महिलाएं हैं। मप्र राज्य आजीविका मिशन के माध्यम से यह पिछले तीन सालों से इस कारोबार से जुड़ीं हैं। आजीविका मिशन ने इन महिलाओं के स्व-सहायता समूह तैयार कराए। इन्हें काम की शुरूआत से पहले इन्हें कई दौर में मुर्गी पालन का प्रशिक्षण दिया गया। इनके गांवों और बस्तियों में ही मुर्गी पालन के लिए शेड बना गए और कारोबार की शुरूआत के लिए औसत 10 से 12 हजार की अनुदान राशि दी गई। कुछ राशि इन्होंने मिलाई। इन आठ जिलों में इन महिलाओं की सहकारी समितियां हैं। इन आठों जिलों के लिए एमपी वुमन पॉल्ट्री प्रोड्यूसर कंपनी बनी है, जिसका संचालन भी इन महिलाओं के हाथों है। पहले साल इन महिलाओं ने 68 करोड़ 41 लाख का चिकन और मुर्गे बेचे। वर्ष 2015-16 में यानी मौजूदा वर्ष में 120 करोड़ का कारोबार करने का इनका टारगेट है। इस कारोबार से होने वाली बचत इन महिलाओं के खाते में बराबर-बराबर बंट जाती है। 
कहां की हैं ये महिलाएं
जिला ब्लाक
होशंगाबाद केसला 
सीधी         चुरहट
छतरपुर         ओरछा
टीकमगढ़         जतारा
डिंडोरी        डिंडोरी
सागर         देवरी
विदिशा         लटेरी
टीकमगढ़         राजनगर
केवल 60 प्रतिशत ही उत्पादन
मप्र में चिकन की जितनी खपत है, उसका 60 प्रतिशत ही उत्पादन प्रदेश में होता है। प्रदेश की शेष 40 प्रतिशत चिकन की जरूरत आंधप्रदेश, महाराष्ट्र जैसे राज्य पूरी करते हैं। 
इलाज भी करती हैं
ये महिलाएं मुर्गी पालन पालन में ही नहीं बल्कि मुर्गियों के इलाज में भी माहिर हैं। इन्हें बीमारियों और उनके इलाज की जानकारी हैं। आजीविका मिशन ने इन्हें न केवल प्रशिक्षण दिया बल्कि एक साल तक लगातार निगरानी की। 
चूजे से मुर्गे तक
इस कारोबार के लिए सबसे पहली जरूरत चूजों की होती है। इसके लिए होशंगाबाद जिले के केसला में आधुनिक हेचरी बनाई गई है। यह हेचरी प्रदान संस्था के साथ मिलकर बनाई गई है। यहां हर महीने 4 लाख चूजें तैयार होते हैं। 28 दिन तक चूजे पाले जाते हैं और इसके बाद इन्हें बेच दिया जाता है। 
हर साल कितना कारोबार
2012-13 - 68.41 करोड़
2013-14 - 83.93 करोड़
2014-15 - 96.15 करोड़
2015-16 - 120 करोड़ (संभावित)
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राज्य आजीविका मिशन ने गांवों में इन महिलाओं को रोजगार की गतिविधियों से जोड़ने के लिए इन्हें मुर्गी पालन का प्रशिक्षण दिया। ये बहुत बेहतर काम काम रही हैं। इन टर्न ओवर हर साल बढ़ रहा है। प्रदेश में करीब 500 करोड़ का ब्रायलर चिकन का कारोबार है। इसमें से करीब 100 करोड़ इन्हीं स्व-सहायता समूह की महिलाओं द्वारा किया जाता है। 
- एलएम बेलवाल,
परियोजना संचालक, मप्र राज्य आजीविका मिशन

सोमवार, 15 जून 2015

मप्र : तेजी से एड्स की चपेट में आ रही हैं महिलाएं

- नियंत्रण के प्रयासों के बाजवूद रोगियों की संख्या में वृद्धि
- रोकथाम के लिए विभागों की संयुक्त कार्ययोजना बनी
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डॉ. अनिल सिरवैयां, भोपाल
9424455625
sirvaiyya@gmail.com
मप्र में एड्स के मरीजों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। सरकार के तमाम प्रयासों से एड्स को लेकर जागरूकता तो बढ़ी है लेकिन मरीजों की संख्या में कमी नहीं आई। सरकार को हाल ही में मिली रिपोर्ट में इस बात की ओर ध्यान दिलाया गया कि एड्स नियंत्रण की गतिविधियों के विस्तार और जागरूकता के प्रयासों में तेजी लाने की जरूरत है। इसके बाद सरकार ने पिछले महीने स्वास्थ्य विभाग और महिला एवं बाल विकास सहित कुछ विभाग को शामिल करते हुए संयुक्त कार्ययोजना तैयार की है। इस कार्ययोजना के क्रियान्वयन की जवाबदारी इन सभी विभागों को दी गई है। 

मप्र एड्स कंट्रोल सोसायटी के परियोजना संचालक फैज अहमद किदवई ने महिला एवं बाल विकास सहित सहयोगी विभागों को इस आशय की जानकारी दी है। किदवई ने कहा कि महिलाओं में एचआईवी एड्स संक्रमण का प्रभाव बढ़ रहा है जिसके परिणामस्वरूप नवजात शिशुओं में भी एचआईवी संक्रमण होने की संभावना बढ़ गई है। इसलिए ऐसे पीड़ितों को जागरूक करने की जरूरत है।
संयुक्त कार्ययोजना
एड्स से लड़ने के विभागों की संयुक्त कार्ययोजना तैयार की गई है। इसमें सभी विभागों लारा किए जाने वाले कार्यों का कैलेंडर तैयार किया गया है। यह काम राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान नई दिल्ली ने किया है। महिला एवं बाल विकास विभाग से कहा गया है कि वह विभागीय प्रशिक्षणों में एचआईवी एड्स पर तकनीकी सत्र शामिल करे। प्रत्येक प्रशिक्षण में एक घंटा की समयावधि एचआईवी एड्स के लिए निर्धारित की जाएगी।
40 हजार से ज्यादा हैं पॉजीटिव
मध्यप्रदेश में 2005 से लेकर दिसंबर 2014 तक 39 हजार 114, एचआईवी पाजीटिव खोजे जा चुके थे। इनमें 40 फीसदी से ज्यादा को एड्स भी हो चुका है। इसके बाद भी 9000 से ज्यादा एचआईवी पाजीटिव ऐसे हैं जो एआरटी (एंटीरेट्रोवायरल ट्रीटमेंट) सेंटर नहीं पहुंचे। महज 31,000 मरीज ही एआरटी सेंटर में पंजीकृत हुए।
दस सालों में 6500 की मौत
मप्र एड्स कंट्रोल सोसायटी (एमपीसैक) के अधिकारियों ने बताया कि पिछले 10 सालों में प्रदेश में इस बीमारी से लगभग 6500 मरीजों की जान जा चुकी है। इनमें 2000 ऐसे हैं जो इलाज के लिए सामने ही नहीं आए। एआरटी सेंटर नहीं आने वाले मरीजों खोजने के लिए एड्स कंट्रोल सोसायटी को मशक्कत करनी पड़ रही है। इंटीग्रेटेड काउंसलिंग एण्ड टेस्टिंग सेंटर(आईसीटीसी) में किसी ने अपना नाम गलत लिखाया है तो किसी ने पता। कुछ ने अपने ठिकाने बदल लिए हैं। अब एचआईवी पीड़ितों के स्मार्ट कार्ड बनाए जा रहे हैं। इस व्यवस्था से इन मरीजों को ढूंढना आसान हो जाएगा। उनकी फोटो व अन्य पहचान के आधार पर उनकी पड़ताल की जाएगी। इसके बाद काउंसिलिंग कर उन्हें एआरटी सेंटर भेजा जाएगा।
3700 पीड़ितों को खोजने की मुहिम शुरू
सोसायटी ने करीब 3700 एचआईवी पीड़ितों के नाम चिन्हित किए हैं, जिन्हें खोजकर एआरटी सेंटर लाया जाएगा। इनमें कुछ पीड़ित ऐसे हैं, जो इलाज लेना शुरू कर दिए थे और कुछ आज तक एआरटी सेंटर में पंजीकृत ही नहीं हुए हैं।
आंकड़े एक नजर में
एचआईवी पीड़ितों की संख्या- 39114
एआरटी में पंजीकृत - 31000
अब तक मौत - 6500
प्रदेश में एआरटी केन्द्र - 22

शनिवार, 13 जून 2015

थ्योरी आॅफ पोटेंशियल : पॉवर मिलते ही बदल जाता है इंसान


  • चर्चा में है युवा आईएएस अधिकारी तरूण पिथोड़े का उपन्यास ‘आईएम पॉसीबल’
  • जो खुद को कम समझते हैं, उनके लिए है यह उपन्यास : पिथोड़े
  • key word : Tarun Pithode, Madhya Pradesh cadre IAS, Human Behavior, I M Possible, Peoples Samachar

डॉ. अनिल सिरवैयां, भोपाल
9424455625
sirvaiyya@gmail.com
मप्र कॉडर के युवा अधिकारी तरूण पिथोड़े का उपन्यास ‘आईएम पॉसीबल’ इन दिनों सुर्खियों में है। यह उपन्यास जीवन के विभिन्न कालखंडों में किसी व्यक्ति की सफलता और असफलता के दौर में उसे मनोभाव और मनोदशा पर प्रकाश डालता है। उपन्यास में कुछ नए सिद्धांत देने की कोशिश की गई है जो व्यवहार से जुडेÞ हैं। यह उपन्यास मुख्यत: युवाओं पर केंद्रित है जो सफलता को परिश्रम और बुद्धि के गुणांक का नतीजा बताता है। एक लेखक के रूप में पिथोड़े कहते हैं कि इस उपन्यास में युवाओं के हर सवाल का जवाब है। जिन्हें खुद पर संदेह होता है, जो खुद को कम समझते हैं, यह उनके लिए लिखा गया है। इसमें थ्योरी आॅफ पोटेंशियल की चर्चा की गई है, जिसमें बताया गया है कि शक्ति के विभिन्न सोपानों पर कैसे व्यक्ति का व्यवहार बदलता है। 

- उपन्यास लिखने का विचार कहां से आया?
लगातार पढ़ते-पढ़ते विचार आया कि कुछ ऐसा लिखा जाए जो सकारात्मक हो, प्रेरणा देने वाला हो। जीवन का नया परिदृश्य दिखाई दिया कि हम चाहे जहां हों, अपनी भावनाएं व्यक्त करें। मैं बहुत सामान्य पृष्ठभूमि से हूं, चाहता हूं कि हर व्यक्ति उपलब्धि प्राप्त करे। सफलता कैसे हासिल होगी, यह बात कहानी के माध्यम से बताना ज्यादा कारगर होता है। इस तरह से बात ज्यादा आत्मसात की जाती है और सफलता सुनिश्चित होती है। इसी विचार के साथ मैंने यह उपन्यास लिखा।
- क्या यह उपन्यास केवल सिविल सर्विस प्रतिभागियों के लिए है?
यह सभी के लिए है। सफलता चाहते हैं, जो व्यक्तियों के बारे में समझ रखना चाहते हैं, जो आपसी व्यवहार के दर्शन और मनोविज्ञान को समझना चाहते हैं। यह उपन्यास युवाओं को इसलिए ज्यादा प्रभावित करेगी क्योंकि इसमें उनके हर उस सवाल का जवाब है जो उनके मन में अक्सर आते हैं। खासकर वह जो खुद को समझते हैं या जिन्हें खुद पर संदेह रहता है।
- उपन्यास में किन-किन विषयों को रेखांकित किया गया है?
इसमें सफलता-असफलता के मायने, समाज की कठिनाईयों, समस्याओं, व्यवस्थाओं पर कटाक्ष हैं। बच्चों के शोषण, मानसिक विकृतियों, भ्रष्टाचार, राजनीति, धर्म, जाति व्यवस्था जैसे विषयों को रेखांकित किया है। सेलफिशनेस पर पूरा एक चैप्टर है। यह क्या होती है, क्यों होती है, इस पर पात्रों के बीच संवाद हैं। यह बताने की कोशिश की है कि बच्चे क्यों और कैसे बिगड़ते हैं और उन्हें कैसे सुधारा जा सकता है। शिक्षक की क्या भूमिका होती है। 
- थ्योरी आॅफ पोटेंशियल क्या है?
इसे इस उपन्यास का सबसे अहम हिस्सा कहा जा सकता है। यह एकदम नई अवधारणा है। व्यक्ति जब अपने जीवन के विभिन्न सोपानों पर शक्ति या ताकत प्राप्त करता है, तब उसके व्यवहार क्या-क्या और कैसे-कैसे परिवर्तन आते हैं, उसका व्यवहार कैसे बदलता है, इस पर विस्तृत विमर्श पात्रों के बीच हुआ है। 
- यूविर्सल सोल की बात कही गई है, यह क्या है?
यूनिवर्सल सोल हम सबको गाइड करती है। इससे हम अंतरआत्मा की आवास को सुन सकते हैं जो हमें जीवन को सफलतापूर्वक जीने में मदद करती है। हमारे बिना यूनिवर्सल सोल नहीं हो सकती है और हम उसके बिना। इसलिए हम कहीं न कहीं एक हैं, इसलिए अंतरआत्मा की आवाज को सुन सकते हैं।


जीवन परिचय
मूलत: मप्र के छिंदवाड़ा जिले के एक सामान्य परिवार से ताल्लुक रखने वाले तरुण पिथोड़े मप्र कॉडर के वर्ष 2009 बैच के आईएएस अधिकारी हैं। कम्प्यूटर इंजीनियरिंग में बीई करने के बाद वे सिविल सर्विस के चुने गए। पिथोड़े वर्तमान में मप्र व्यवसायिक परीक्षा मंडल के संचालक हैं। 

बैम्बूसेटम : आकार ले रहा देश का सबसे बांस बगीचा


  • ‘बैम्बूसेटम’ में लगाई जाएंगी बांस की 200 से ज्यादा प्रजाति
  • भोपाल के लहारपुर में हो रहा तैयार
  • कृषि एवं वनस्पति क्षेत्र की रिसर्च में भी उपयोगी
  • key word : Bamboosetum, Bhopal, Peoples Samachar, Antony JC D'sa, Ecological Garden, Madhya pradesh

डॉ. अनिल सिरवैयां, भोपाल
9424455625
राजधानी भोपाल में देश का सबसे बड़ा बैम्बूसीटम यानी बांस गार्डन आकार ले रहा है। इस बैम्बूसेटम में बांस की विभिन्न प्रजातियों को एक ही जगह पर रोप कर एक एक गार्डन के रूप में विकसित किया जा रहा है। इसमें बांस की 200 से देशी-विदेशी ज्यादा प्रजाति को रोपी जाएंगी जिनमें से अब 35 से अधिक प्रजातियां रोपी जा चुकी हैं। जुलाई तक 100 से अधिक प्रजातियों के बांस के पौधे इसमें रोपे जाएंगे। पूरी तरह तैयार होने के बाद यह देश का सबसे बड़ा बैम्बू सेटम होगा। वर्तमान में देश का सबसे बड़ा एक मात्र बैम्बू सेटम केरल के पीची में जहां एक गार्डन में बांस की 65 प्रजातियों के वृक्ष हैं। मप्र में बनने वाला यह सेटम दो साल में पूरा तैयार करने का लक्ष्य रखा है। मप्र राज्य बांस मिशन इस बैम्बू सेटम को तैयार कर रहा है। 
बैम्बू सेटम में बांस का पौधा रोपते मप्र के मुख्य सचिव अंटोनी डिसा

क्या है बैम्बू सेटम
बैम्बू सेटम में बांस की विभिन्न प्रजातियों को एक ही स्थान पर रोपा जाता है। यह एक तरह से बांस बैंक है। मप्र में तैयार हो रहे बैम्बू सेटम में फिलहाल 35 से ज्यादा प्रजातियों को रोपा गया है। यह प्रजातियां केरला फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट कोच्चि, केरल, बैंगलौर और मध्यप्रदेश के विभिन्न स्थलों से बुलाई गर्इं थीं। बांस की प्रत्येक प्रजाति में से 9 पौधे इस प्रोजेक्ट के तहत रोपे जा रहे हैं। प्रत्येक पौधे के रोपण में 10मीटर गुणा 10 मीटर का अंतराल रखा गया है। यह प्रोजेक्ट पूरी तरह से सिंचित एवं उच्च तकनीकी रोपण का मॉडल है।
लहारपुर इकॉलोजिकल गार्डन
भोपाल वन मंडल के तहत लहारपुर में 1800 हेक्टेयर में ईकोलॉजिकल गार्डन बनाया गया है। प्रदेश का यह पहला बैम्बू सेटम इसी गार्डन में बनाया जा रहा है। इस ईकोलॉजिकल गार्डन में पहले से नक्षत्र वन, ग्रह वन, दशमूल वन, के साथ-साथ बांस एवं आंवला प्रजाति तथा विभिन्न औषधीय पौधे लगाए गए हैं। 
क्या होगा लाभ
बैम्बू सेटम की स्थापना से इस ईकोलॉजिकल गार्डन का महत्व और बढ़ेगा। स्थानीय कॉलेज के विद्यार्थियों के अलावा कृषि एवं वनस्पतिशास्त्र विशेषज्ञों के अध्ययन एवं शोध के लिए बांस प्रजातियों की जानकारी एक ही स्थान पर उपलब्ध रहेगी। 
अद्भुत बांस
  • बांस एक हर्बल प्राचीन औषधि है जो हजारों सालों से एशिया में इस्तेमाल की जा रही है। 
  • अपने टॉनिक और कसेले गुणों के काारण बांस आकर्षक माना जााता है। 
  • बांस की लकड़ी का कोयला, बांस सिरका, बांस का रस, बांस बियर, बांस नमक एवं बांस चीनी स्वास्थ्य और औषधियों में इस्तेमाल की जाती है।  
  • बांस आबो-हवा बदलने में सर्वोपरि है।
  • बांस के उपयोग से प्राकृतिक वनों को बचाया जा सकता है।
  • बांस के पौधे बीज, कटिंग प्रयोगशाला में टिशू कल्चर तकनीक या कंद अर्थात् रायजोम से उगाये जा सकते हैं।
  • बांस के फाइबर की एक अद्भुत विशेषता यह है कि वह नमी को अवशोषित कर त्वचा को शुष्क एवं ठंडा रखने में उत्कृष्ट है।
  • बांस के रेशे तापमान को सहन कर सकते हैं।
  • बांस की जड़ें भूमि एवं जल से धातुओं को अवशोषित कर प्रदूषण नियंत्रण करती हैं।

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बैम्बू सेटम बांस की प्रजातियों का एक ही स्थान पर कलेक्शन है। दो साल के भीतर यह भारत का सबसे बड़ा बैम्बू सेटम होगा। इस जुलाई तक हम इसमें बांस की 100 से ज्यादा प्रजातियों के पौधे रोप देंगे। 
- डॉ. एके भट्टाचार्य, मिशन संचालक
मप्र राज्य बांस मिशन
Dr. A.K. Bhattacharya, Mission Director
Madhya Pradesh State Bamboo 

मप्र में बनेंगे आक्सीजन पार्क


- सांस लेने में मददगार बनेगा बांस
- बांसों की विभिन्न किस्मों को रौपा जाएगा
- शुरूआती भोपाल के राष्ट्रीय मानव संग्रहालय से
Key word : Oxygen Park, Bhopal, Bamboo Mission, Madhya Pradesh, National Museum of Man, Baans 

डॉ. अनिल सिरवैयां, भोपाल
9424455625


अपनी अनेक खूबियों और अपने वानस्पतिक गुणों के कारण बड़े काम का वृक्ष ‘बांस’ अब देश में मध्यप्रदेश को नई पहचान देगा। देश में पहली बार में ‘आॅक्सीजन पार्क’ बनाने की शुरूआत मप्र से होने जा रही है। पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर भोपाल के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय में तीन दिन पहले विश्व पर्यावरण दिवस पर आॅक्सीजन पार्क बनाने के लिए बांस की विभिन्न किस्मों के पौधे रोपे गए हैं। इसके बाद पहले भोपाल, फिर इंदौर, ग्वालियर और जबलपुर में ऐसे आॅक्सीजन पार्क बनाए जाएंगे। इन चार शहरों के बाद धीरे-धीरे पूरे प्रदेश में ऐसे आॅक्सीजन पार्क बनाए जाने की कार्ययोजना है। इस पार्क की खूबियों को समझने को बाद राज्य सरकार ने पहले चरण में प्रदेश के सभी प्रमुख शहरों में आक्सीजन पार्क के लिए जमीन चिन्हित करने के निर्देश दिए हैं। आक्सीजन पार्क विकसित करने का काम मप्र राज्य बांस मिशन करेगा। 

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय में आक्सीजन पार्क के लिए बांस के पौधे रोपे गए।
क्या है आॅक्सीजन पार्क
विभिन्न प्रजाति के बांसों का एक ही स्थान पर प्लांटेशन किया जाएगा। शहरी क्षेत्रों के लिए यह आॅक्सीजन पार्क का काम करेंगे। अनेक देशों में आॅक्सीजन पार्क का कॉन्सेप्ट काफी लोकप्रिय और प्रदूषण नियंत्रण में काफी मददगार तथा सार्थक है। आॅक्सीजन पार्क के लिए बांस सबसे उपयोगी है, क्योंकि बांस अन्य प्रजातियों की तुलना में 35 प्रतिशत अधिक कार्बनडाई आक्साईड अवशोषित करता है तथा 35 प्रतिशत से ज्यादा आक्सीजन वायुमंडल में उत्सर्जित करता है। भारत में अब तक इस कॉन्सेप्ट पर अमल नहीं हुआ। मप्र से इसकी शुरूआत होने जा रही है। 

बांस शिल्पियों को भी मिलेगी मदद
आक्सीजन पार्क में लगाए जाने वाले बांस के पौधे के वृक्ष बनने के बाद इनकी कटाई और फिर से नए पौधे रौपे जाएंगे। राज्य बांस मिशन के अनुसार इन बांस क्षेत्रों से प्राप्त बांस से शिल्पकारों और बांस का काम करने वाले परिवारों को जरूरत के मुताबिक बांस मिल पाएंगे। भोपाल में लगभग 600 परिवार बांस का काम करते हैं और यही इनकी आजीविका का साधन है। इन परिवारों की जितनी मांग है, उससे केवल 10 से 20 प्रतिशत बांस ही इन्हें मिल पाता है। चूंकि बांस के इन भिर्रों (रोपण क्षेत्र) से लगातार बांस प्राप्त होते रहेंगे, इसलिए इनके एक स्थाई बांस स्रोत संसाधन के रूप में यह आॅक्सीजन पार्क काम आएंगे। 
 इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय भोपाल


सीवेज वाटर में लगेंगे
आॅक्सीजन पार्क में बांस रोपण के लिए सीवेज वाटर का उपयोग किया जाएगा। भोपाल में सीवेज वाटर से सब्जियां उगाने पर एनजीटी ने प्रतिबंध लगा दिया है। राज्य बांस मिशन ने आक्सीजन पार्क के लिए ऐसे स्थानों को सबसे बेहतर विकल्प माना है। इसके अलावा ऐसे किसानों और भूमि स्वामियों को सब्जियों के स्थान पर बांस के लिए रोपण के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। 

बांस : प्राकृतिक गुण


  • बांस पृथ्वी पर सबसे तेजी से बढ़ने वाली प्रजाति है। यह हर 24 घंटे में 2 से 3 इंच बढ़ जाता है। 
  • बांस दूसरे किसी पौधे से 33 प्रतिशत अधिक कार्बन डाय आक्साइड अवशोषित करता है और 35 प्रतिशत से अधिक अवशोषित करता है।
  • बांस सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों को रोकता है। सूर्य के ऊष्मा प्रभाव को कम करता है।
  • बांस के पौधे की जड़ें भूमि एवं जल से धातुओं को अवशोषित कर प्रदूषण नियंत्रण करती हैं।
  • बांस के पौधे को वृद्धि के लिए किसी रासायनिक कीटनाशक या उर्वरक की जरूरत नहीं है।
  • विश्व में बांस की लगभग 1500 प्रजातियां हैं और इनके लगभग दो हजार उपयोग हैं।
  • भारत में बांस की 137 प्रजातियां पार्इं जाती हैं।
  • मप्र में बांस की दो प्रजातियां और 10 रोपित प्रजातियां उपलब्ध हैं। 

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हम मप्र में आक्सीजन पार्क बनाने जा रहे हैं। इनमें बांस की विभिन्न किस्मों को रोपा जाएगा। बांस ही एक ऐसा पौधा है जो अन्य प्रजातियों से अधिक कार्बन-डाई-आक्साइड अवशोषित करता है और इनसे अधिक आक्सीजन उत्सर्जित करता है। फिलहाल भोपाल के मानव संग्रहालय से आक्सीजन पार्क की शुरूआत की गई है। भोपाल में बहुत जल्द ही अनेक स्थानों पर आक्सीजन पार्क विकसित हो जाएंगे। इसके अन्य प्रमुख शहरों में यह काम किया जाएगा। इससे पर्यावरण संरक्षण तो होगा ही बांस की मांग और आपूर्ति का अंतर भी कम होगा। 
- डॉ. एके भट्टाचार्य, मिशन संचालक
मप्र राज्य बांस मिशन
- Dr. A.K. Bhattacharya, Mission Director
Madhya Pradesh State Bamboo 


शुक्रवार, 12 जून 2015

झिझक छोड़ दी, बहू-बेटियां बनाती, बेचती हैं नेपकिन

Sanitary Napkin, Madhya Pradesh, India, My Napkin

- गांव में गांवों के लिए बनती है ‘माय नेपकिन’
- शहरी महिलाओं से आगे निकली गांव की महिलाएं

डॉ. अनिल सिरवैयां, भोपाल
09424455625


माहवारी के दौरान कपड़े, राख, मिट्टी, सूखे पत्ते, कंडा और र्इंटों का उपयोग करने वाले मप्र के कुछ जिलों में अब महिलाओं की सोच तेजी से बदल रही है। उन्होंने झिझक छोड़ दी है। गांव की बहू-बेटियां अब खुलकर माहवारी पर बात कर रही हैं। उन्हें स्वच्छता के लाभ और गंदगी के नुकसान समझ आ गए हैं। मजबूरी कैसी भी हो लेकिन स्वच्छता से समझौता उन्हें मंजूर नहीं हैं। मासिक धर्म के दौरान इस्तेमाल के लिए वे खुद न सिर्फ सेनेटरी नेपकिन बना रही हैंबल्कि घर-घर जाकर महिलाओं को उपयोग के लिए प्रेरित भी कर रही हैं। इससे उन्हें रोजगार भी मिला है और आत्मविश्वास भी बढ़ा है। 


यह सब हो रहा है मप्र के उन छह जिलों में जहां महिलाओं के स्व-सहायता समूह पिछले तीन सालों से सेनेटरी नेपकिन बनाने का काम कर रहे हैं। यह समूह वर्तमान में हर रोज 1500 पैकेट सेनेटरी नेपकिन का निर्माण कर रहे हैं। एक पैकेट में आठ नेपकिन होती हैं। यह नेपकिन बाजार में बिकने वाली बड़ी कंपनियों की नैपकिन से किसी भी तुलना में कम नहीं है। हेल्थी और हाईजीन के सभी पैमानों पर यह खरी है। इनकी कीमत भी बाजार में बिकने वाली नेपकिन से करीब 30 से 40 प्रतिशत कम है। रायसेन, छतरपुर, पन्ना, बड़वानी, श्योपुर और डिंडोरी में महिलाओं के समूह यह काम कर रहे हैं। 
डीपीआईपी की बड़ी भूमिका
डीपीआईपी ने इन छह जिलों में महिलाओं के आर्थिक और सामाजिक उन्नयन के साथ इनकी सोच बदलने का काम भी किया है। महिला समूहों को पहले नेपकिन बनाने की ट्रेनिंग दी गई और बाद में इन्हीं महिलाओं में से कुछ को मास्टर ट्रेनर बनाकर दूसरे गांवों और समूहों में इस काम का विस्तार किया। स्वच्छता के साथ रोजगार के साधन उपलब्ध कराने के लिए समूह की महिलाओं को 10 से 12 हजार की अनुदान राशि उपलब्ध कराकर सेनेटरी नेपकिन बनाने का काम शुरू किया। 
माय नेपकिन
स्व-सहायता समूहों ने आजीविका माय नेपकिन के नाम से अपना यह उत्पाद तैयार किया। डीपीआईपी की गरिमा बताती हैं कि इन छह जिलों में करीब 1500 पैकेट रोजाना नेपकिन तैयार होती है। यह नेपकिन आसपास के गांवोंं में ही बेची जाती है। इन समूहों का फिलहाल शहरी बाजारों पर फोकस नहीं है, क्योंकि गांव में ही इनकी काफी खपत हो रही है। 
समूह सदस्यों ने मिटाई झिझक
महिलाओं के इन समूहों में गांव की बहू, बेटियां, भी शामिल हैं। ये महिलाएं गांव के घर-घर जाकर महिलाओं से माहवारी पर चर्चा करती हैं और उन्हें सेनेटरी नेपकिन के इस्तेमाल के लिए प्रेरित करती हैं। 
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डीपीआईपी ने छह जिलों में महिलाओं के समूहों को सेनेटरी नेपकिन बनाने के लिए प्रोत्साहित किया था। इन महिलाओं को पहले प्रशिक्षण दिया और इन्हीं में से मास्टर ट्रेनर बनाए गए। अब यह समूह इन जिलों में तेजी से काम कर रहे हैं। नेपकिन बनाते हैं और गांवों में ही बेहद सस्ते दामों पर बेचते हैं। इनमें स्वच्छता की भावना भी जागी है और इनका आर्थिक सशक्तिकरण भी हुआ है। इन समूहों में से कई महिलाएं सलाना एक लाख से ज्यादा कमा रही हैं।
एलएम बेलबाल,  परियोजना समन्वयक, डीपीआईपी, मप्र
L.M. Belwal, Project Coordinator, DPIP. M.P. 

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देवास में भी अनूठी पहल
देवास जिले के एक गांव में स्व-सहायता समूह की महिलाओं ने मद्रास में जाकर सेनेटरी नेपकिन बनाने का प्रशिक्षण लिया। ग्राम में आकर सेनेटरी नैपकिन का उत्पादन प्रारंभ किया। इन्होंने ग्राम में ही सेनेटरी नैपकिन का उत्पादन केन्द्र शुरू किया। 
भोपाल में भी हुई थी शुरूआत
वर्ष 2007 में भोपाल गैस पीड़ित महिलाओं के आर्थिक पुनर्वास के लिए सेनेटरी नैपकिन परियोजना शुरू की थी। इसके लिए भोपाल की 600 गैस पीड़ित महिलाओं का चयन कर उनके कुल 30 स्व सहायता समूह बनाये गए थे। ये महिलाएं सेनेटरी नेपकिन पेड बना रही थी जिसे भारती ट्रेड मार्क का नाम देकर टेंशन फ्री  ब्राण्ड के नाम से बाजार में बेचा जा रहा था। इसमें सरकारी सहायता राशि नहीं मिलने के कारण यह प्रोजेक्ट बंद हो गया। 

रविवार, 7 जून 2015

मैगी से बेहतर हैं हमारे गांव की महिलाओं के प्रोडक्ट

 - मल्टीनेशनल्स कंपनियों को पछाड़ने का रखती हैं माद्दा
- गैर-रासायनिक और शुद्धता की कसौटी पर पूरे खरे 
- सरकार के बस दो मिनट मिल जाएं तो बदल देंगी तस्वीर

डॉ. अनिल सिरवैयां, भोपाल
09424455625
मल्टीनेशनल कंपनी नेस्ले की ‘मैगी’ से ज्यादा अच्छे, शुद्ध, सेहतमंद और भरोसेमंद उत्पाद मध्यप्रदेश के गांवों की उन गरीब और अनपढ़ महिलाओं के हैं जो अपनी कड़ी मेहनत और हौंसलों के दम पर मल्टीनेशनल कंपनियों को भी टक्कर देने का माद्दा रखती हैं। इनके उत्पादों में न सीसा यानी लेड है और न ही अन्य कोई हानिकारक रसायन। न मिलावट है और न ही अधिक लाभ कमाने की कोई चाह। यही वजह है कि आज देश की राजधानी दिल्ली पर भी मप्र की हल्दी पावडर का रंग चढ़ चुका है। मप्र के अलावा दिल्ली और दूसरे राज्यों में हल्दी पावडर सहित इनके दूसरे उत्पादों की धूम मची हुई है।
राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन और डीपीआईपी के सहयोग से प्रदेश के 15 जिलों में यह महिलाएं अपने-अपने तरह के उत्पाद तैयार कर रही है। डीपीआईपी इन उत्पादों की मार्केटिंग और ब्रांडिंग में इनका सहयोग कर रहा है। इन 15 जिलों में करीब लाख गरीब, किसान महिलाएं स्व-सहायता समूहों से जुड़ी हुर्इं हैं। इनमें से करीब तीन लाख 40 हजार महिलाएं कृषि, पशुपालन, हैंडलूम आधारित उत्पाद तैयार कर रही हैं। इन समूहों के इन 15 जिलों में आजीविका फ्रेश नाम से 63 आउटलेट हैं जहां से साग-सब्जी से लेकर उनके सभी उत्पाद बेचे जाते हैं। यह महिलाएं डीपीआईपी के साथ मिलकर खेत में फसल उगाने से लेकर ग्राहक की प्लेट तक पहुंचाने की प्रक्रिया अपनाती हैं। खाद्य पदार्थों के लिए सभी एगमार्क सहित सभी जरूरी लायसेंस इनके पास हैं। महिलाओं के साथ काम करने वाली डीपीआईपी की गरिमा सुंदरम बताती हैं कि इन महिलाओं के उत्पादों को पूरी तरह जैविक तो नहीं लेकिन गैर रसायनिक जरूर हैं। इसलिए यह शुद्ध हैं। 

क्या-क्या बनाती-बेचती हैं ये महिलाएं
धनिया पावडर, मिर्ची पावडर, हल्दी पावडर, मुरब्बा, अचार, शहद, शरबती आटा, बेसन। इनके अलावा दूध, अंडा, चिकन, कपड़े, बांस के बर्तन और इसी तरह के कई सामान। इनमें से अधिकांश महिलाएं सलाना एक लाख से अधिक की आय अर्जित करती हैं। 

क्या मदद करता है डीपीआईपी
इन महिलाओं को खेत में लगाने के लिए उन्नत बीज, उन्नत तकनीक का प्रशिक्षण, मार्केटिंग की व्यवस्था, वेल्यू एडिशन, पैकेजिंग के अलावा कृषि मंडियों, सहकारी समितियों को इनके सामान बिकवाने में डीपीआईपी मदद करती है। इसके अलावा मप्र से बाहर सामानों को बिकवाने में मदद की जाती है। 

बाजार में कैसी-कैसी मिलावट
हल्दी में मक्का का आटा, मिर्ची में र्इंट का चूरा, धनिया में बकरी की लीद मिलाकर मुनाफा कमाने की कोशिश की जाती है। इन महिलाओं के उत्पादों में पूरी तरह से शुद्ध हैं। 

मदद की दरकार
इन महिलाओं को डीपीआईपी परियोजना में औसत 10 हजार रुपए की अनुदान उत्पादक गतिविधियों के लिए दिया जाता है। इसी सहायता ने इन महिलाओं ने अपना यह व्यापार चला पा रही हैं। महंगी मशीनें खरीदना इनके लिए संभव नहीं है, इसलिए इनके उत्पाद फिलहाल सीमित हैं। 
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ये भी
  •  40 हजार लीटर दूध प्रतिदिन मप्र दुग्ध संघ (सांची) को दे रहीं हैं। 
  • जिलों में रायसेन और रीवा में रोजाना 75 हजार अंडों का उत्पादन।
  • सीधी और शिवपुरी में चिकन फ्रेश। उत्तर प्रदेश को चिकन सप्लाई।
  • कपड़े, पर्दे, बेडशीट, टॉबेल, दरी आदि का निर्माण और विक्रय।
  • चूड़ियां, टेराकोटा, खिलौने, अगरबत्ती उत्पादन और विक्रय। 
  • हर महीने 4 टन अगरबत्ती की सप्लाई।


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यह बड़ी खुशी की बात है कि शासन के प्रयास सफल हुए हैं और लाखों महिलाएं गांवों में ही अपने उत्पाद तैयार कर रही हैं। इसके बाद अब इन्हें खुद आगे बढ़ना होगा। बाजार में प्रतिस्पर्धा के लायक प्रोडक्ट बनाने होंगे। अनुदान पर आश्रित न रहकर अपनी गतिविधियों को बढ़ाना होगा। शासन हर संभव मदद दी है और यह प्रयास आगे भी रहेगा। 
अरूणा शर्मा, अपर मुख्य सचिव, पंचायत एवं ग्रामीण विकास, मप्र
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गांवों में पहले महिलाएं आचार, बड़ी, पापड़ बनाती थीं, हमने बाजार की आवश्यकताओं को देखकर उत्पादन बनाने के लिए इन्हें प्रेरित किया। यह उत्पाद पूरी तरह शुद्ध और गैर रसायनिक हैं। इनके उत्पादों की दूसरे राज्यों में भी डिमांड है। भविष्य में मप्र के स्व-सहायता समूह देश भर को अपने विभिन्न उत्पाद उपलब्ध कराएंगे।
एलएम बेलबाल, परियोजना समन्वयक, डीपीआईपी, मप्र

सोमवार, 12 जनवरी 2015

  मप्र योजना आयोग में भी होगा बदलाव


- उपाध्यक्ष बोले, केंद्र की मंशा के अनुरूप करेंगे तैयार
- आयोग को यूनिवर्सिटीस के साथ जोड़ने की कवायद

भोपाल
केंद्रीय योजना आयोग के नाम, संरचना और कार्यप्रणाली में बदलाव के बाद मप्र सरकार भी इस दिशा में आगे बढ़ रही है। मप्र राज्य योजना आयोग को भी केंद्र की तर्ज पर बदलने की खाका करीब-करीब तैयार हो गया है। राज्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष बाबूलाल जैन ने कहा कि केंद्र सरकार की मंशा के अनुरूप राज्य योजना आयोग में बदलाव किए जाएंगे।
बताया जा रहा है कि राज्य योजना आयोग को प्रदेश के विश्वविद्यालयों के साथ भी जोड़ने पर विचार किया जा रहा है कि ताकि रिसर्च की गतिविधियों को बढ़ाया जा सके। इसी तरह इसके लक्ष्य, ढांचे और उद्देश्यों में भी बदलाव के लिए व्यापक विचार-मंथन चल रहा है। उल्लेखनीय है कि केंद्रीय योजना आयोग के स्वरूप में बदलाव पर राज्यों के साथ हुए विमर्श में मप्र ने आयोग का नाम पॉलिसी रिफार्म एण्ड डवलपमेंट कमीशन सुझाया था। साथ ही मप्र की सिफारिश थी कि आयोग के कामकाज में सरकारी योजनाओं के मूल्यांकन का काम भी जोड़ा जाए।
आयोग के उपाध्यक्ष जैन पांच जनवरी को भोपाल पहुंच रहे हैं। इसी दिन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी छुट्टियों के वापस लौटेंगे। इसके बाद राज्य योजना आयोग में बदलाव को अंतिम रूप दिया जाएगा। हालां
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