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सोमवार, 29 जून 2015

जन-धन योजना के 60 प्रतिशत खाते खाली

- 70 लाख से ज्यादा लोगों ने नहीं दिखाई योजना में रुचि 
- एक नए पैसे का भी नहीं किया लेन-देन
Keyword : PMJDY, Madhya Pradesh, Peoples Samachar, DIFMP, State Level Bankers Commiittee, Narendra Modi, AADHAR, Central Bank of India, Bhopal


डॉ. अनिल सिरवैयां, भोपाल
9424455625
sirvaiyya@gmail.com

केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी प्रधानमंत्री जन-धन योजना में मप्र के लोगों ने ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। योजना के तहत खोले गए कुल बैंक खातों में से 60 प्रतिशत से अधिक खातों में कोई ट्रांजेक्शन (लेन-देन) नहीं हुआ। खाते जब से खुले हैं तब से खाली पड़े हैं। लोगों की ‘उपेक्षा’ ने बैंकों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। योजना के तहत प्रत्येक खाताधारक को एक लाख के बीमा सुरक्षा दी गई है जिसके लिए खाते खुलने के 45 दिनों के भीतर कम से कम एक बार ट्रांजेक्शन होना जरूरी है। 
आपको बता दें कि प्रधानमंत्री जन-धन योजना के पहले चरण में मप्र में कुल एक करोड़ 20 लाख लोगों के बैंक खाते खुले हैं। यह खाते मार्च 2015 तक खोले गए थे। इस हिसाब से करीब 70 लाख लोगों ने अब तक अपने खातों की सुध नहीं ली है। हाल ही में राज्य स्तरीय बैंकर्स समिति की बैठक में इस मामले पर विभिन्न बैंकों ने अधिकारियों ने चिंता जताई है। बैंक अधिकारियों का कहना कि योजना को लेकर आम लोगों में जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है। यहां भी उल्लेखनीय है कि इनमें अधिकांश खातों को खुले हुए 45 दिनों से ज्यादा का समय हो चुका है। इस लिहाजा से ये खाताधारक एक लाख के दुर्घटना बीमा के लिए भी अपात्र हो चुके हैं। 
बीमा योजनाओं केवल 24 लाख कवर
प्रधानमंत्री जन-धन योजना के दूसरे चरण में 9 मई को लांच की हुर्इं प्रधानमंत्री जीवन ज्योति योजना, प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना और अटल पेंशन योजना में 16 जून तक प्रदेश में 73 लाख 81 हजार लोगों का ही बीमा हो पाया। इससे पहले 9 जून तक यह आंकड़ा केवल 24 लाख 38 हजार था। राज्य सरकार ने इन तीनों योजनाओं में दो करोड़ 92 लाख 60 हजार लोगों को कवर रखने का लक्ष्य रखा था। सरकार ने कहा था कि योजना की लांचिंग से तीन महीने के भीतर इस लक्ष्य को हासिल किया जाएगा। करीब दो महीने में लक्ष्य 50 प्रतिशत भी लक्ष्य की पूर्ति नहीं हो पाई। शेष लोगों को योजनाओं में कवर करने के लिए सरकार के लिए पास जुलाई का महीना बचा है। 
मंत्रियों की लगी थी ड्यूटी
बीमा और पेंशन योजनाओं में अधिक से अधिक लोगों को कवर करने के लिए राज्य सरकार ने बैंकों को सहयोग देने के लिए शिविर आयोजित करने के निर्देश कलेक्टरों को दिए थे। इसी तरह राज्य सरकार के मंत्रियों की ड्यूटी भी इन योजनाओं के लिए लगाई थी लेकिन इन प्रयासों के बाद भी 50 प्रतिशत लक्ष्य तक भी पूरा नहीं हुआ। 
इसलिए धीमी है रफ्तार
- योजनाओं के फार्म पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं है।
- बीमा और बीसी एजेंटों को किसी प्रकार के कमीशन की सुविधा नहीं इसलिए वे दिलचस्पी नहीं ले रहे।
अब ये होगा
- जिला मुख्यालयों तक बड़ी संख्या में फार्म पहुंचाए जाएंगे। बैंक मैनेजरों की जिम्मेदारी होगी।
- समाचार पत्रों में भरकर फार्म बांटे जाएंगे।
- बीमा कंपनियों का सहयोग भी लिया जाएगा। 
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आधार लिंकेज में भी पिछड़े
प्रदेश में करीब 71 प्रतिशत लोगों के आधार नंबर हैं लेकिन इनमें से केवल 53 प्रतिशत लोगों ने अपने आधार नंबर को अपने बैंक खातों से लिंक कराया है। उल्लेखनीय है कि केंद्र-राज्य सरकार की कई योजनाओं के लाभ के लिए बैंकों खातों से आधार नंबर को लिंक कराना अनिवार्य किया गया है। बैंक कमेटी की बैठक में इसके लिए भी भी बैंक अधिकारी जागरूकता की कमी बताई। 
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इस मामले पर सरकार का पक्ष जानने के लिए राज्य के वित्त मंत्री जयंत मलैया एवं राज्य सरकार के प्रवक्ता मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा से संपर्क किया गया लेकिन दोनों मंत्रियों का फोन लगातार बंद रहा। 
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इन बहुप्रचारित योजनाओं में लोगों का रूझान नहीं होना बताता है कि वे उन 15 लाख रुपयों का इंतजार कर रहे हैं जो काला धन वापस आने से लोगों के हिस्से में आने वाले थे। शायद इसीलिए 60 प्रतिशत लोगों ने जन-धन योजना के खातों में कोई लेन-देन नहीं किया।
- केके मिश्रा, मुख्य प्रवक्त, मप्र कांग्रेस कमेटी

शुक्रवार, 19 जून 2015

100 करोड़ का चिकन कारोबार महिलाओं के हाथों में

- प्रदेश में हर साल बिकता है औसत 500 करोड़ का चिकन
- 4 हजार महिलाएं करती हैं 100 करोड़ का कारोबार 
- कुल कारोबार में 20 प्रतिशत भागीदारी
Key word : broiler chicken, NRLM, DPIP, Belwal, Women Entrepreneur, Peoples, Sirvaiya, Madhya Pradesh, 
डॉ. अनिल सिरवैयां, भोपाल
9424455625
sirvaiyya@gmail.com
मप्र में हर साल औसत 500 करोड़ का ब्रायलर चिकन बिकता है। प्रदेश में 500 करोड़ के चिकन कारोबार में करीब 100 करोड़ का कारोबार महिलाओं के हाथों में हैं। यानी पूरे कारोबार में उनकी 20 प्रतिशत की भागीदारी है। पिछले साल इन महिलाओं ने 32 लाख किलो चिकन आसैर 88 लाख मुर्गे बेचे थे। 

प्रदेश के आठ जिलों की यह कुल चार हजार महिलाएं हैं। मप्र राज्य आजीविका मिशन के माध्यम से यह पिछले तीन सालों से इस कारोबार से जुड़ीं हैं। आजीविका मिशन ने इन महिलाओं के स्व-सहायता समूह तैयार कराए। इन्हें काम की शुरूआत से पहले इन्हें कई दौर में मुर्गी पालन का प्रशिक्षण दिया गया। इनके गांवों और बस्तियों में ही मुर्गी पालन के लिए शेड बना गए और कारोबार की शुरूआत के लिए औसत 10 से 12 हजार की अनुदान राशि दी गई। कुछ राशि इन्होंने मिलाई। इन आठ जिलों में इन महिलाओं की सहकारी समितियां हैं। इन आठों जिलों के लिए एमपी वुमन पॉल्ट्री प्रोड्यूसर कंपनी बनी है, जिसका संचालन भी इन महिलाओं के हाथों है। पहले साल इन महिलाओं ने 68 करोड़ 41 लाख का चिकन और मुर्गे बेचे। वर्ष 2015-16 में यानी मौजूदा वर्ष में 120 करोड़ का कारोबार करने का इनका टारगेट है। इस कारोबार से होने वाली बचत इन महिलाओं के खाते में बराबर-बराबर बंट जाती है। 
कहां की हैं ये महिलाएं
जिला ब्लाक
होशंगाबाद केसला 
सीधी         चुरहट
छतरपुर         ओरछा
टीकमगढ़         जतारा
डिंडोरी        डिंडोरी
सागर         देवरी
विदिशा         लटेरी
टीकमगढ़         राजनगर
केवल 60 प्रतिशत ही उत्पादन
मप्र में चिकन की जितनी खपत है, उसका 60 प्रतिशत ही उत्पादन प्रदेश में होता है। प्रदेश की शेष 40 प्रतिशत चिकन की जरूरत आंधप्रदेश, महाराष्ट्र जैसे राज्य पूरी करते हैं। 
इलाज भी करती हैं
ये महिलाएं मुर्गी पालन पालन में ही नहीं बल्कि मुर्गियों के इलाज में भी माहिर हैं। इन्हें बीमारियों और उनके इलाज की जानकारी हैं। आजीविका मिशन ने इन्हें न केवल प्रशिक्षण दिया बल्कि एक साल तक लगातार निगरानी की। 
चूजे से मुर्गे तक
इस कारोबार के लिए सबसे पहली जरूरत चूजों की होती है। इसके लिए होशंगाबाद जिले के केसला में आधुनिक हेचरी बनाई गई है। यह हेचरी प्रदान संस्था के साथ मिलकर बनाई गई है। यहां हर महीने 4 लाख चूजें तैयार होते हैं। 28 दिन तक चूजे पाले जाते हैं और इसके बाद इन्हें बेच दिया जाता है। 
हर साल कितना कारोबार
2012-13 - 68.41 करोड़
2013-14 - 83.93 करोड़
2014-15 - 96.15 करोड़
2015-16 - 120 करोड़ (संभावित)
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राज्य आजीविका मिशन ने गांवों में इन महिलाओं को रोजगार की गतिविधियों से जोड़ने के लिए इन्हें मुर्गी पालन का प्रशिक्षण दिया। ये बहुत बेहतर काम काम रही हैं। इन टर्न ओवर हर साल बढ़ रहा है। प्रदेश में करीब 500 करोड़ का ब्रायलर चिकन का कारोबार है। इसमें से करीब 100 करोड़ इन्हीं स्व-सहायता समूह की महिलाओं द्वारा किया जाता है। 
- एलएम बेलवाल,
परियोजना संचालक, मप्र राज्य आजीविका मिशन

सोमवार, 15 जून 2015

मप्र : तेजी से एड्स की चपेट में आ रही हैं महिलाएं

- नियंत्रण के प्रयासों के बाजवूद रोगियों की संख्या में वृद्धि
- रोकथाम के लिए विभागों की संयुक्त कार्ययोजना बनी
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डॉ. अनिल सिरवैयां, भोपाल
9424455625
sirvaiyya@gmail.com
मप्र में एड्स के मरीजों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। सरकार के तमाम प्रयासों से एड्स को लेकर जागरूकता तो बढ़ी है लेकिन मरीजों की संख्या में कमी नहीं आई। सरकार को हाल ही में मिली रिपोर्ट में इस बात की ओर ध्यान दिलाया गया कि एड्स नियंत्रण की गतिविधियों के विस्तार और जागरूकता के प्रयासों में तेजी लाने की जरूरत है। इसके बाद सरकार ने पिछले महीने स्वास्थ्य विभाग और महिला एवं बाल विकास सहित कुछ विभाग को शामिल करते हुए संयुक्त कार्ययोजना तैयार की है। इस कार्ययोजना के क्रियान्वयन की जवाबदारी इन सभी विभागों को दी गई है। 

मप्र एड्स कंट्रोल सोसायटी के परियोजना संचालक फैज अहमद किदवई ने महिला एवं बाल विकास सहित सहयोगी विभागों को इस आशय की जानकारी दी है। किदवई ने कहा कि महिलाओं में एचआईवी एड्स संक्रमण का प्रभाव बढ़ रहा है जिसके परिणामस्वरूप नवजात शिशुओं में भी एचआईवी संक्रमण होने की संभावना बढ़ गई है। इसलिए ऐसे पीड़ितों को जागरूक करने की जरूरत है।
संयुक्त कार्ययोजना
एड्स से लड़ने के विभागों की संयुक्त कार्ययोजना तैयार की गई है। इसमें सभी विभागों लारा किए जाने वाले कार्यों का कैलेंडर तैयार किया गया है। यह काम राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान नई दिल्ली ने किया है। महिला एवं बाल विकास विभाग से कहा गया है कि वह विभागीय प्रशिक्षणों में एचआईवी एड्स पर तकनीकी सत्र शामिल करे। प्रत्येक प्रशिक्षण में एक घंटा की समयावधि एचआईवी एड्स के लिए निर्धारित की जाएगी।
40 हजार से ज्यादा हैं पॉजीटिव
मध्यप्रदेश में 2005 से लेकर दिसंबर 2014 तक 39 हजार 114, एचआईवी पाजीटिव खोजे जा चुके थे। इनमें 40 फीसदी से ज्यादा को एड्स भी हो चुका है। इसके बाद भी 9000 से ज्यादा एचआईवी पाजीटिव ऐसे हैं जो एआरटी (एंटीरेट्रोवायरल ट्रीटमेंट) सेंटर नहीं पहुंचे। महज 31,000 मरीज ही एआरटी सेंटर में पंजीकृत हुए।
दस सालों में 6500 की मौत
मप्र एड्स कंट्रोल सोसायटी (एमपीसैक) के अधिकारियों ने बताया कि पिछले 10 सालों में प्रदेश में इस बीमारी से लगभग 6500 मरीजों की जान जा चुकी है। इनमें 2000 ऐसे हैं जो इलाज के लिए सामने ही नहीं आए। एआरटी सेंटर नहीं आने वाले मरीजों खोजने के लिए एड्स कंट्रोल सोसायटी को मशक्कत करनी पड़ रही है। इंटीग्रेटेड काउंसलिंग एण्ड टेस्टिंग सेंटर(आईसीटीसी) में किसी ने अपना नाम गलत लिखाया है तो किसी ने पता। कुछ ने अपने ठिकाने बदल लिए हैं। अब एचआईवी पीड़ितों के स्मार्ट कार्ड बनाए जा रहे हैं। इस व्यवस्था से इन मरीजों को ढूंढना आसान हो जाएगा। उनकी फोटो व अन्य पहचान के आधार पर उनकी पड़ताल की जाएगी। इसके बाद काउंसिलिंग कर उन्हें एआरटी सेंटर भेजा जाएगा।
3700 पीड़ितों को खोजने की मुहिम शुरू
सोसायटी ने करीब 3700 एचआईवी पीड़ितों के नाम चिन्हित किए हैं, जिन्हें खोजकर एआरटी सेंटर लाया जाएगा। इनमें कुछ पीड़ित ऐसे हैं, जो इलाज लेना शुरू कर दिए थे और कुछ आज तक एआरटी सेंटर में पंजीकृत ही नहीं हुए हैं।
आंकड़े एक नजर में
एचआईवी पीड़ितों की संख्या- 39114
एआरटी में पंजीकृत - 31000
अब तक मौत - 6500
प्रदेश में एआरटी केन्द्र - 22

शनिवार, 13 जून 2015

थ्योरी आॅफ पोटेंशियल : पॉवर मिलते ही बदल जाता है इंसान


  • चर्चा में है युवा आईएएस अधिकारी तरूण पिथोड़े का उपन्यास ‘आईएम पॉसीबल’
  • जो खुद को कम समझते हैं, उनके लिए है यह उपन्यास : पिथोड़े
  • key word : Tarun Pithode, Madhya Pradesh cadre IAS, Human Behavior, I M Possible, Peoples Samachar

डॉ. अनिल सिरवैयां, भोपाल
9424455625
sirvaiyya@gmail.com
मप्र कॉडर के युवा अधिकारी तरूण पिथोड़े का उपन्यास ‘आईएम पॉसीबल’ इन दिनों सुर्खियों में है। यह उपन्यास जीवन के विभिन्न कालखंडों में किसी व्यक्ति की सफलता और असफलता के दौर में उसे मनोभाव और मनोदशा पर प्रकाश डालता है। उपन्यास में कुछ नए सिद्धांत देने की कोशिश की गई है जो व्यवहार से जुडेÞ हैं। यह उपन्यास मुख्यत: युवाओं पर केंद्रित है जो सफलता को परिश्रम और बुद्धि के गुणांक का नतीजा बताता है। एक लेखक के रूप में पिथोड़े कहते हैं कि इस उपन्यास में युवाओं के हर सवाल का जवाब है। जिन्हें खुद पर संदेह होता है, जो खुद को कम समझते हैं, यह उनके लिए लिखा गया है। इसमें थ्योरी आॅफ पोटेंशियल की चर्चा की गई है, जिसमें बताया गया है कि शक्ति के विभिन्न सोपानों पर कैसे व्यक्ति का व्यवहार बदलता है। 

- उपन्यास लिखने का विचार कहां से आया?
लगातार पढ़ते-पढ़ते विचार आया कि कुछ ऐसा लिखा जाए जो सकारात्मक हो, प्रेरणा देने वाला हो। जीवन का नया परिदृश्य दिखाई दिया कि हम चाहे जहां हों, अपनी भावनाएं व्यक्त करें। मैं बहुत सामान्य पृष्ठभूमि से हूं, चाहता हूं कि हर व्यक्ति उपलब्धि प्राप्त करे। सफलता कैसे हासिल होगी, यह बात कहानी के माध्यम से बताना ज्यादा कारगर होता है। इस तरह से बात ज्यादा आत्मसात की जाती है और सफलता सुनिश्चित होती है। इसी विचार के साथ मैंने यह उपन्यास लिखा।
- क्या यह उपन्यास केवल सिविल सर्विस प्रतिभागियों के लिए है?
यह सभी के लिए है। सफलता चाहते हैं, जो व्यक्तियों के बारे में समझ रखना चाहते हैं, जो आपसी व्यवहार के दर्शन और मनोविज्ञान को समझना चाहते हैं। यह उपन्यास युवाओं को इसलिए ज्यादा प्रभावित करेगी क्योंकि इसमें उनके हर उस सवाल का जवाब है जो उनके मन में अक्सर आते हैं। खासकर वह जो खुद को समझते हैं या जिन्हें खुद पर संदेह रहता है।
- उपन्यास में किन-किन विषयों को रेखांकित किया गया है?
इसमें सफलता-असफलता के मायने, समाज की कठिनाईयों, समस्याओं, व्यवस्थाओं पर कटाक्ष हैं। बच्चों के शोषण, मानसिक विकृतियों, भ्रष्टाचार, राजनीति, धर्म, जाति व्यवस्था जैसे विषयों को रेखांकित किया है। सेलफिशनेस पर पूरा एक चैप्टर है। यह क्या होती है, क्यों होती है, इस पर पात्रों के बीच संवाद हैं। यह बताने की कोशिश की है कि बच्चे क्यों और कैसे बिगड़ते हैं और उन्हें कैसे सुधारा जा सकता है। शिक्षक की क्या भूमिका होती है। 
- थ्योरी आॅफ पोटेंशियल क्या है?
इसे इस उपन्यास का सबसे अहम हिस्सा कहा जा सकता है। यह एकदम नई अवधारणा है। व्यक्ति जब अपने जीवन के विभिन्न सोपानों पर शक्ति या ताकत प्राप्त करता है, तब उसके व्यवहार क्या-क्या और कैसे-कैसे परिवर्तन आते हैं, उसका व्यवहार कैसे बदलता है, इस पर विस्तृत विमर्श पात्रों के बीच हुआ है। 
- यूविर्सल सोल की बात कही गई है, यह क्या है?
यूनिवर्सल सोल हम सबको गाइड करती है। इससे हम अंतरआत्मा की आवास को सुन सकते हैं जो हमें जीवन को सफलतापूर्वक जीने में मदद करती है। हमारे बिना यूनिवर्सल सोल नहीं हो सकती है और हम उसके बिना। इसलिए हम कहीं न कहीं एक हैं, इसलिए अंतरआत्मा की आवाज को सुन सकते हैं।


जीवन परिचय
मूलत: मप्र के छिंदवाड़ा जिले के एक सामान्य परिवार से ताल्लुक रखने वाले तरुण पिथोड़े मप्र कॉडर के वर्ष 2009 बैच के आईएएस अधिकारी हैं। कम्प्यूटर इंजीनियरिंग में बीई करने के बाद वे सिविल सर्विस के चुने गए। पिथोड़े वर्तमान में मप्र व्यवसायिक परीक्षा मंडल के संचालक हैं। 

बैम्बूसेटम : आकार ले रहा देश का सबसे बांस बगीचा


  • ‘बैम्बूसेटम’ में लगाई जाएंगी बांस की 200 से ज्यादा प्रजाति
  • भोपाल के लहारपुर में हो रहा तैयार
  • कृषि एवं वनस्पति क्षेत्र की रिसर्च में भी उपयोगी
  • key word : Bamboosetum, Bhopal, Peoples Samachar, Antony JC D'sa, Ecological Garden, Madhya pradesh

डॉ. अनिल सिरवैयां, भोपाल
9424455625
राजधानी भोपाल में देश का सबसे बड़ा बैम्बूसीटम यानी बांस गार्डन आकार ले रहा है। इस बैम्बूसेटम में बांस की विभिन्न प्रजातियों को एक ही जगह पर रोप कर एक एक गार्डन के रूप में विकसित किया जा रहा है। इसमें बांस की 200 से देशी-विदेशी ज्यादा प्रजाति को रोपी जाएंगी जिनमें से अब 35 से अधिक प्रजातियां रोपी जा चुकी हैं। जुलाई तक 100 से अधिक प्रजातियों के बांस के पौधे इसमें रोपे जाएंगे। पूरी तरह तैयार होने के बाद यह देश का सबसे बड़ा बैम्बू सेटम होगा। वर्तमान में देश का सबसे बड़ा एक मात्र बैम्बू सेटम केरल के पीची में जहां एक गार्डन में बांस की 65 प्रजातियों के वृक्ष हैं। मप्र में बनने वाला यह सेटम दो साल में पूरा तैयार करने का लक्ष्य रखा है। मप्र राज्य बांस मिशन इस बैम्बू सेटम को तैयार कर रहा है। 
बैम्बू सेटम में बांस का पौधा रोपते मप्र के मुख्य सचिव अंटोनी डिसा

क्या है बैम्बू सेटम
बैम्बू सेटम में बांस की विभिन्न प्रजातियों को एक ही स्थान पर रोपा जाता है। यह एक तरह से बांस बैंक है। मप्र में तैयार हो रहे बैम्बू सेटम में फिलहाल 35 से ज्यादा प्रजातियों को रोपा गया है। यह प्रजातियां केरला फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट कोच्चि, केरल, बैंगलौर और मध्यप्रदेश के विभिन्न स्थलों से बुलाई गर्इं थीं। बांस की प्रत्येक प्रजाति में से 9 पौधे इस प्रोजेक्ट के तहत रोपे जा रहे हैं। प्रत्येक पौधे के रोपण में 10मीटर गुणा 10 मीटर का अंतराल रखा गया है। यह प्रोजेक्ट पूरी तरह से सिंचित एवं उच्च तकनीकी रोपण का मॉडल है।
लहारपुर इकॉलोजिकल गार्डन
भोपाल वन मंडल के तहत लहारपुर में 1800 हेक्टेयर में ईकोलॉजिकल गार्डन बनाया गया है। प्रदेश का यह पहला बैम्बू सेटम इसी गार्डन में बनाया जा रहा है। इस ईकोलॉजिकल गार्डन में पहले से नक्षत्र वन, ग्रह वन, दशमूल वन, के साथ-साथ बांस एवं आंवला प्रजाति तथा विभिन्न औषधीय पौधे लगाए गए हैं। 
क्या होगा लाभ
बैम्बू सेटम की स्थापना से इस ईकोलॉजिकल गार्डन का महत्व और बढ़ेगा। स्थानीय कॉलेज के विद्यार्थियों के अलावा कृषि एवं वनस्पतिशास्त्र विशेषज्ञों के अध्ययन एवं शोध के लिए बांस प्रजातियों की जानकारी एक ही स्थान पर उपलब्ध रहेगी। 
अद्भुत बांस
  • बांस एक हर्बल प्राचीन औषधि है जो हजारों सालों से एशिया में इस्तेमाल की जा रही है। 
  • अपने टॉनिक और कसेले गुणों के काारण बांस आकर्षक माना जााता है। 
  • बांस की लकड़ी का कोयला, बांस सिरका, बांस का रस, बांस बियर, बांस नमक एवं बांस चीनी स्वास्थ्य और औषधियों में इस्तेमाल की जाती है।  
  • बांस आबो-हवा बदलने में सर्वोपरि है।
  • बांस के उपयोग से प्राकृतिक वनों को बचाया जा सकता है।
  • बांस के पौधे बीज, कटिंग प्रयोगशाला में टिशू कल्चर तकनीक या कंद अर्थात् रायजोम से उगाये जा सकते हैं।
  • बांस के फाइबर की एक अद्भुत विशेषता यह है कि वह नमी को अवशोषित कर त्वचा को शुष्क एवं ठंडा रखने में उत्कृष्ट है।
  • बांस के रेशे तापमान को सहन कर सकते हैं।
  • बांस की जड़ें भूमि एवं जल से धातुओं को अवशोषित कर प्रदूषण नियंत्रण करती हैं।

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बैम्बू सेटम बांस की प्रजातियों का एक ही स्थान पर कलेक्शन है। दो साल के भीतर यह भारत का सबसे बड़ा बैम्बू सेटम होगा। इस जुलाई तक हम इसमें बांस की 100 से ज्यादा प्रजातियों के पौधे रोप देंगे। 
- डॉ. एके भट्टाचार्य, मिशन संचालक
मप्र राज्य बांस मिशन
Dr. A.K. Bhattacharya, Mission Director
Madhya Pradesh State Bamboo 

मप्र में बनेंगे आक्सीजन पार्क


- सांस लेने में मददगार बनेगा बांस
- बांसों की विभिन्न किस्मों को रौपा जाएगा
- शुरूआती भोपाल के राष्ट्रीय मानव संग्रहालय से
Key word : Oxygen Park, Bhopal, Bamboo Mission, Madhya Pradesh, National Museum of Man, Baans 

डॉ. अनिल सिरवैयां, भोपाल
9424455625


अपनी अनेक खूबियों और अपने वानस्पतिक गुणों के कारण बड़े काम का वृक्ष ‘बांस’ अब देश में मध्यप्रदेश को नई पहचान देगा। देश में पहली बार में ‘आॅक्सीजन पार्क’ बनाने की शुरूआत मप्र से होने जा रही है। पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर भोपाल के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय में तीन दिन पहले विश्व पर्यावरण दिवस पर आॅक्सीजन पार्क बनाने के लिए बांस की विभिन्न किस्मों के पौधे रोपे गए हैं। इसके बाद पहले भोपाल, फिर इंदौर, ग्वालियर और जबलपुर में ऐसे आॅक्सीजन पार्क बनाए जाएंगे। इन चार शहरों के बाद धीरे-धीरे पूरे प्रदेश में ऐसे आॅक्सीजन पार्क बनाए जाने की कार्ययोजना है। इस पार्क की खूबियों को समझने को बाद राज्य सरकार ने पहले चरण में प्रदेश के सभी प्रमुख शहरों में आक्सीजन पार्क के लिए जमीन चिन्हित करने के निर्देश दिए हैं। आक्सीजन पार्क विकसित करने का काम मप्र राज्य बांस मिशन करेगा। 

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय में आक्सीजन पार्क के लिए बांस के पौधे रोपे गए।
क्या है आॅक्सीजन पार्क
विभिन्न प्रजाति के बांसों का एक ही स्थान पर प्लांटेशन किया जाएगा। शहरी क्षेत्रों के लिए यह आॅक्सीजन पार्क का काम करेंगे। अनेक देशों में आॅक्सीजन पार्क का कॉन्सेप्ट काफी लोकप्रिय और प्रदूषण नियंत्रण में काफी मददगार तथा सार्थक है। आॅक्सीजन पार्क के लिए बांस सबसे उपयोगी है, क्योंकि बांस अन्य प्रजातियों की तुलना में 35 प्रतिशत अधिक कार्बनडाई आक्साईड अवशोषित करता है तथा 35 प्रतिशत से ज्यादा आक्सीजन वायुमंडल में उत्सर्जित करता है। भारत में अब तक इस कॉन्सेप्ट पर अमल नहीं हुआ। मप्र से इसकी शुरूआत होने जा रही है। 

बांस शिल्पियों को भी मिलेगी मदद
आक्सीजन पार्क में लगाए जाने वाले बांस के पौधे के वृक्ष बनने के बाद इनकी कटाई और फिर से नए पौधे रौपे जाएंगे। राज्य बांस मिशन के अनुसार इन बांस क्षेत्रों से प्राप्त बांस से शिल्पकारों और बांस का काम करने वाले परिवारों को जरूरत के मुताबिक बांस मिल पाएंगे। भोपाल में लगभग 600 परिवार बांस का काम करते हैं और यही इनकी आजीविका का साधन है। इन परिवारों की जितनी मांग है, उससे केवल 10 से 20 प्रतिशत बांस ही इन्हें मिल पाता है। चूंकि बांस के इन भिर्रों (रोपण क्षेत्र) से लगातार बांस प्राप्त होते रहेंगे, इसलिए इनके एक स्थाई बांस स्रोत संसाधन के रूप में यह आॅक्सीजन पार्क काम आएंगे। 
 इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय भोपाल


सीवेज वाटर में लगेंगे
आॅक्सीजन पार्क में बांस रोपण के लिए सीवेज वाटर का उपयोग किया जाएगा। भोपाल में सीवेज वाटर से सब्जियां उगाने पर एनजीटी ने प्रतिबंध लगा दिया है। राज्य बांस मिशन ने आक्सीजन पार्क के लिए ऐसे स्थानों को सबसे बेहतर विकल्प माना है। इसके अलावा ऐसे किसानों और भूमि स्वामियों को सब्जियों के स्थान पर बांस के लिए रोपण के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। 

बांस : प्राकृतिक गुण


  • बांस पृथ्वी पर सबसे तेजी से बढ़ने वाली प्रजाति है। यह हर 24 घंटे में 2 से 3 इंच बढ़ जाता है। 
  • बांस दूसरे किसी पौधे से 33 प्रतिशत अधिक कार्बन डाय आक्साइड अवशोषित करता है और 35 प्रतिशत से अधिक अवशोषित करता है।
  • बांस सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों को रोकता है। सूर्य के ऊष्मा प्रभाव को कम करता है।
  • बांस के पौधे की जड़ें भूमि एवं जल से धातुओं को अवशोषित कर प्रदूषण नियंत्रण करती हैं।
  • बांस के पौधे को वृद्धि के लिए किसी रासायनिक कीटनाशक या उर्वरक की जरूरत नहीं है।
  • विश्व में बांस की लगभग 1500 प्रजातियां हैं और इनके लगभग दो हजार उपयोग हैं।
  • भारत में बांस की 137 प्रजातियां पार्इं जाती हैं।
  • मप्र में बांस की दो प्रजातियां और 10 रोपित प्रजातियां उपलब्ध हैं। 

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हम मप्र में आक्सीजन पार्क बनाने जा रहे हैं। इनमें बांस की विभिन्न किस्मों को रोपा जाएगा। बांस ही एक ऐसा पौधा है जो अन्य प्रजातियों से अधिक कार्बन-डाई-आक्साइड अवशोषित करता है और इनसे अधिक आक्सीजन उत्सर्जित करता है। फिलहाल भोपाल के मानव संग्रहालय से आक्सीजन पार्क की शुरूआत की गई है। भोपाल में बहुत जल्द ही अनेक स्थानों पर आक्सीजन पार्क विकसित हो जाएंगे। इसके अन्य प्रमुख शहरों में यह काम किया जाएगा। इससे पर्यावरण संरक्षण तो होगा ही बांस की मांग और आपूर्ति का अंतर भी कम होगा। 
- डॉ. एके भट्टाचार्य, मिशन संचालक
मप्र राज्य बांस मिशन
- Dr. A.K. Bhattacharya, Mission Director
Madhya Pradesh State Bamboo 


शुक्रवार, 12 जून 2015

झिझक छोड़ दी, बहू-बेटियां बनाती, बेचती हैं नेपकिन

Sanitary Napkin, Madhya Pradesh, India, My Napkin

- गांव में गांवों के लिए बनती है ‘माय नेपकिन’
- शहरी महिलाओं से आगे निकली गांव की महिलाएं

डॉ. अनिल सिरवैयां, भोपाल
09424455625


माहवारी के दौरान कपड़े, राख, मिट्टी, सूखे पत्ते, कंडा और र्इंटों का उपयोग करने वाले मप्र के कुछ जिलों में अब महिलाओं की सोच तेजी से बदल रही है। उन्होंने झिझक छोड़ दी है। गांव की बहू-बेटियां अब खुलकर माहवारी पर बात कर रही हैं। उन्हें स्वच्छता के लाभ और गंदगी के नुकसान समझ आ गए हैं। मजबूरी कैसी भी हो लेकिन स्वच्छता से समझौता उन्हें मंजूर नहीं हैं। मासिक धर्म के दौरान इस्तेमाल के लिए वे खुद न सिर्फ सेनेटरी नेपकिन बना रही हैंबल्कि घर-घर जाकर महिलाओं को उपयोग के लिए प्रेरित भी कर रही हैं। इससे उन्हें रोजगार भी मिला है और आत्मविश्वास भी बढ़ा है। 


यह सब हो रहा है मप्र के उन छह जिलों में जहां महिलाओं के स्व-सहायता समूह पिछले तीन सालों से सेनेटरी नेपकिन बनाने का काम कर रहे हैं। यह समूह वर्तमान में हर रोज 1500 पैकेट सेनेटरी नेपकिन का निर्माण कर रहे हैं। एक पैकेट में आठ नेपकिन होती हैं। यह नेपकिन बाजार में बिकने वाली बड़ी कंपनियों की नैपकिन से किसी भी तुलना में कम नहीं है। हेल्थी और हाईजीन के सभी पैमानों पर यह खरी है। इनकी कीमत भी बाजार में बिकने वाली नेपकिन से करीब 30 से 40 प्रतिशत कम है। रायसेन, छतरपुर, पन्ना, बड़वानी, श्योपुर और डिंडोरी में महिलाओं के समूह यह काम कर रहे हैं। 
डीपीआईपी की बड़ी भूमिका
डीपीआईपी ने इन छह जिलों में महिलाओं के आर्थिक और सामाजिक उन्नयन के साथ इनकी सोच बदलने का काम भी किया है। महिला समूहों को पहले नेपकिन बनाने की ट्रेनिंग दी गई और बाद में इन्हीं महिलाओं में से कुछ को मास्टर ट्रेनर बनाकर दूसरे गांवों और समूहों में इस काम का विस्तार किया। स्वच्छता के साथ रोजगार के साधन उपलब्ध कराने के लिए समूह की महिलाओं को 10 से 12 हजार की अनुदान राशि उपलब्ध कराकर सेनेटरी नेपकिन बनाने का काम शुरू किया। 
माय नेपकिन
स्व-सहायता समूहों ने आजीविका माय नेपकिन के नाम से अपना यह उत्पाद तैयार किया। डीपीआईपी की गरिमा बताती हैं कि इन छह जिलों में करीब 1500 पैकेट रोजाना नेपकिन तैयार होती है। यह नेपकिन आसपास के गांवोंं में ही बेची जाती है। इन समूहों का फिलहाल शहरी बाजारों पर फोकस नहीं है, क्योंकि गांव में ही इनकी काफी खपत हो रही है। 
समूह सदस्यों ने मिटाई झिझक
महिलाओं के इन समूहों में गांव की बहू, बेटियां, भी शामिल हैं। ये महिलाएं गांव के घर-घर जाकर महिलाओं से माहवारी पर चर्चा करती हैं और उन्हें सेनेटरी नेपकिन के इस्तेमाल के लिए प्रेरित करती हैं। 
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डीपीआईपी ने छह जिलों में महिलाओं के समूहों को सेनेटरी नेपकिन बनाने के लिए प्रोत्साहित किया था। इन महिलाओं को पहले प्रशिक्षण दिया और इन्हीं में से मास्टर ट्रेनर बनाए गए। अब यह समूह इन जिलों में तेजी से काम कर रहे हैं। नेपकिन बनाते हैं और गांवों में ही बेहद सस्ते दामों पर बेचते हैं। इनमें स्वच्छता की भावना भी जागी है और इनका आर्थिक सशक्तिकरण भी हुआ है। इन समूहों में से कई महिलाएं सलाना एक लाख से ज्यादा कमा रही हैं।
एलएम बेलबाल,  परियोजना समन्वयक, डीपीआईपी, मप्र
L.M. Belwal, Project Coordinator, DPIP. M.P. 

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देवास में भी अनूठी पहल
देवास जिले के एक गांव में स्व-सहायता समूह की महिलाओं ने मद्रास में जाकर सेनेटरी नेपकिन बनाने का प्रशिक्षण लिया। ग्राम में आकर सेनेटरी नैपकिन का उत्पादन प्रारंभ किया। इन्होंने ग्राम में ही सेनेटरी नैपकिन का उत्पादन केन्द्र शुरू किया। 
भोपाल में भी हुई थी शुरूआत
वर्ष 2007 में भोपाल गैस पीड़ित महिलाओं के आर्थिक पुनर्वास के लिए सेनेटरी नैपकिन परियोजना शुरू की थी। इसके लिए भोपाल की 600 गैस पीड़ित महिलाओं का चयन कर उनके कुल 30 स्व सहायता समूह बनाये गए थे। ये महिलाएं सेनेटरी नेपकिन पेड बना रही थी जिसे भारती ट्रेड मार्क का नाम देकर टेंशन फ्री  ब्राण्ड के नाम से बाजार में बेचा जा रहा था। इसमें सरकारी सहायता राशि नहीं मिलने के कारण यह प्रोजेक्ट बंद हो गया। 

रविवार, 7 जून 2015

मैगी से बेहतर हैं हमारे गांव की महिलाओं के प्रोडक्ट

 - मल्टीनेशनल्स कंपनियों को पछाड़ने का रखती हैं माद्दा
- गैर-रासायनिक और शुद्धता की कसौटी पर पूरे खरे 
- सरकार के बस दो मिनट मिल जाएं तो बदल देंगी तस्वीर

डॉ. अनिल सिरवैयां, भोपाल
09424455625
मल्टीनेशनल कंपनी नेस्ले की ‘मैगी’ से ज्यादा अच्छे, शुद्ध, सेहतमंद और भरोसेमंद उत्पाद मध्यप्रदेश के गांवों की उन गरीब और अनपढ़ महिलाओं के हैं जो अपनी कड़ी मेहनत और हौंसलों के दम पर मल्टीनेशनल कंपनियों को भी टक्कर देने का माद्दा रखती हैं। इनके उत्पादों में न सीसा यानी लेड है और न ही अन्य कोई हानिकारक रसायन। न मिलावट है और न ही अधिक लाभ कमाने की कोई चाह। यही वजह है कि आज देश की राजधानी दिल्ली पर भी मप्र की हल्दी पावडर का रंग चढ़ चुका है। मप्र के अलावा दिल्ली और दूसरे राज्यों में हल्दी पावडर सहित इनके दूसरे उत्पादों की धूम मची हुई है।
राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन और डीपीआईपी के सहयोग से प्रदेश के 15 जिलों में यह महिलाएं अपने-अपने तरह के उत्पाद तैयार कर रही है। डीपीआईपी इन उत्पादों की मार्केटिंग और ब्रांडिंग में इनका सहयोग कर रहा है। इन 15 जिलों में करीब लाख गरीब, किसान महिलाएं स्व-सहायता समूहों से जुड़ी हुर्इं हैं। इनमें से करीब तीन लाख 40 हजार महिलाएं कृषि, पशुपालन, हैंडलूम आधारित उत्पाद तैयार कर रही हैं। इन समूहों के इन 15 जिलों में आजीविका फ्रेश नाम से 63 आउटलेट हैं जहां से साग-सब्जी से लेकर उनके सभी उत्पाद बेचे जाते हैं। यह महिलाएं डीपीआईपी के साथ मिलकर खेत में फसल उगाने से लेकर ग्राहक की प्लेट तक पहुंचाने की प्रक्रिया अपनाती हैं। खाद्य पदार्थों के लिए सभी एगमार्क सहित सभी जरूरी लायसेंस इनके पास हैं। महिलाओं के साथ काम करने वाली डीपीआईपी की गरिमा सुंदरम बताती हैं कि इन महिलाओं के उत्पादों को पूरी तरह जैविक तो नहीं लेकिन गैर रसायनिक जरूर हैं। इसलिए यह शुद्ध हैं। 

क्या-क्या बनाती-बेचती हैं ये महिलाएं
धनिया पावडर, मिर्ची पावडर, हल्दी पावडर, मुरब्बा, अचार, शहद, शरबती आटा, बेसन। इनके अलावा दूध, अंडा, चिकन, कपड़े, बांस के बर्तन और इसी तरह के कई सामान। इनमें से अधिकांश महिलाएं सलाना एक लाख से अधिक की आय अर्जित करती हैं। 

क्या मदद करता है डीपीआईपी
इन महिलाओं को खेत में लगाने के लिए उन्नत बीज, उन्नत तकनीक का प्रशिक्षण, मार्केटिंग की व्यवस्था, वेल्यू एडिशन, पैकेजिंग के अलावा कृषि मंडियों, सहकारी समितियों को इनके सामान बिकवाने में डीपीआईपी मदद करती है। इसके अलावा मप्र से बाहर सामानों को बिकवाने में मदद की जाती है। 

बाजार में कैसी-कैसी मिलावट
हल्दी में मक्का का आटा, मिर्ची में र्इंट का चूरा, धनिया में बकरी की लीद मिलाकर मुनाफा कमाने की कोशिश की जाती है। इन महिलाओं के उत्पादों में पूरी तरह से शुद्ध हैं। 

मदद की दरकार
इन महिलाओं को डीपीआईपी परियोजना में औसत 10 हजार रुपए की अनुदान उत्पादक गतिविधियों के लिए दिया जाता है। इसी सहायता ने इन महिलाओं ने अपना यह व्यापार चला पा रही हैं। महंगी मशीनें खरीदना इनके लिए संभव नहीं है, इसलिए इनके उत्पाद फिलहाल सीमित हैं। 
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ये भी
  •  40 हजार लीटर दूध प्रतिदिन मप्र दुग्ध संघ (सांची) को दे रहीं हैं। 
  • जिलों में रायसेन और रीवा में रोजाना 75 हजार अंडों का उत्पादन।
  • सीधी और शिवपुरी में चिकन फ्रेश। उत्तर प्रदेश को चिकन सप्लाई।
  • कपड़े, पर्दे, बेडशीट, टॉबेल, दरी आदि का निर्माण और विक्रय।
  • चूड़ियां, टेराकोटा, खिलौने, अगरबत्ती उत्पादन और विक्रय। 
  • हर महीने 4 टन अगरबत्ती की सप्लाई।


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यह बड़ी खुशी की बात है कि शासन के प्रयास सफल हुए हैं और लाखों महिलाएं गांवों में ही अपने उत्पाद तैयार कर रही हैं। इसके बाद अब इन्हें खुद आगे बढ़ना होगा। बाजार में प्रतिस्पर्धा के लायक प्रोडक्ट बनाने होंगे। अनुदान पर आश्रित न रहकर अपनी गतिविधियों को बढ़ाना होगा। शासन हर संभव मदद दी है और यह प्रयास आगे भी रहेगा। 
अरूणा शर्मा, अपर मुख्य सचिव, पंचायत एवं ग्रामीण विकास, मप्र
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गांवों में पहले महिलाएं आचार, बड़ी, पापड़ बनाती थीं, हमने बाजार की आवश्यकताओं को देखकर उत्पादन बनाने के लिए इन्हें प्रेरित किया। यह उत्पाद पूरी तरह शुद्ध और गैर रसायनिक हैं। इनके उत्पादों की दूसरे राज्यों में भी डिमांड है। भविष्य में मप्र के स्व-सहायता समूह देश भर को अपने विभिन्न उत्पाद उपलब्ध कराएंगे।
एलएम बेलबाल, परियोजना समन्वयक, डीपीआईपी, मप्र